Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ अपना-पराया २०५ फिर भी बैठे बात कर रहे हैं, और एक दूसरे को कोई मारने नहीं आ रहा है; बल्कि एक दूसरे के काम ही आ रहे हैं। तुम कहोगे, इस बात की हमें नौकरी मिलती है। लेकिन, नौकरी मिलने से इतना हो सकता है कि हम मार दिया करें, उसमें एक जीत का और खुशी का और अपने फ़र्ज अदा करने का खयाल जो आ जाता है ? वह कहाँ से आता है ? सवाल है कि वह कहाँ से आता है ? इसलिए कहीं कुछ भेद की बात जरूर है। कहीं कुछ फरेब है, कुछ ऐयारी।... मेरा मन तो दो-तीन साल फौज में रहकर पक-सा गया है। अपने स्त्री-बच्चों के बीच में रहें, जमीन में से कुछ उगाएँ, हाथ के जोर से चीजों में कुछ अदल-बदल करें और थोड़े में सुख चैन-से रहें, तो क्या हरज है ? मैं तो कभी से वहाँ से आने की सोचता था । करते-करते अब आना मिला है।" ___ सुनने वाला “हाँ-हूँ" करता हुआ सुन रहा था। वह जानता था, इस तरह चुपचाप विना उकताहट जताये और बिना सुने बात सुनते रहने का उसे रुपया-धेली कुछ मिल ही जायगा। बीचबीच में वह योग भी देता था, "हाँ सरकार, हाँ सरकार ।" __ फौजी कहता रहा, "मैंने अपने बच्चे को देखा तक नहीं। मेरे पीछे क्या हुआ हो और क्या नहीं ? घर वाली को अकेले ही सब भुगतना हुआ होगा। मैं जो लौट आया हूँ, इसका क्या भरोसा था ? छन में मर भी सकता था । क्यों भाई, क्या कहते हो ?" "हाँ सरकार ।" "देखो, तुम भी यहाँ रहते हो। तुम्हें डर, न झंझट । अपना काम है, अपना घर । घर से कोसों दूर तो भटकते नहीं फिरते। न किसी की चाकरी में हो। इसमें क्या मजा है कि घर का आराम छोड़ कर दूर जायँ, मुलाजमत करें और उससे जो पैसे पावें, उसके

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246