Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 221
________________ २०६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] बल लौट कर पड़ोस पर नवाबी ठसक जमावें । क्यों भाई, है न बात ?" वह पैसे से भी और वैसे भी भरा था और व्ययशील हो सकता था । श्राशा उसे उठाये थी और सामने बैठे इस निम्नवृति जीव के सामने उसे अपने को बड़ा समझना और बड़ा दिखाना अच्छा लगता था । इस प्रकार अपने बड़प्पन में स्वस्थ होकर वह इस जीव के साथ भाई-चारा भी बिना खतरे के दिखा सकता था। उसने जेब से चवन्नी निकालकर सराय वाले को दी, कहा, "लो, बाल बच्चों को जलेबी खिलाना...। और देखो, घोड़ा सवेरे के लिए जीन कसकर तैयार रहे। पचास कोस की मंजिल है, हम जल्दी घर पहुँचना चाहते हैं । " भठियारे ने जमीन की ओर सिर झुकाया, कहा, "अच्छा सरकार ।" शाम होने पर जरा इधर-उधर घूमा, रात बुलाई और खाना खा-पीकर सोने की चेष्टा करने लगा । सोचता था -सवेरे ही उठ कर गज़रदम वह चल देगा । जब रात सुनसान थी और वह गाढ़ी नींद सो रहा था। तभी एक व्याघात उपस्थित हुआ । पास ही कहीं से एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुन पड़ी। उस बच्चे की माँ उसे बहुत मनाती थी; पर वह मानता नहीं था । शायद भूखा हो या हठीला । कभी माँ उसे झिड़कती थी, कभी पुचकारती थी। लेकिन बच्चा अच्छी तरह चुप नहीं हो रहा था । बच्चे के लगातार रोने की वह आवाज उस सन्नाटे में उसे बेहद शुभ मालूम हुई । जो पत्नी से मिलने का सुख - स्वप्न देख रहा था, वह उचट गया । यह बेमतलब का क्रन्दन, बेराग, बे-स्वर,

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