Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 223
________________ २०८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] सिर पर अगर चलती ही रहे, तो क्या चैन आसान है ? तो क्या उसको सहना सहज है ? सो सिपाही की सहन-शक्ति की पराकाष्ठा जल्दी आ गई। फिर भठियारे को बुलाया, "यह बदनसीब चीनना नहीं छोड़ेगा ? उसे निकालो यहाँ से ।" "हुजूर, गरीब है । कुछ घंटों की बात है, सबेरा होते वह भी अपना रास्ता लेगी; हुजूर को भी तशरीफ़ ले जाना है ।" "नहीं, नहीं बीमारों के लिए यह जगह नहीं है । हम कहते उससे अभी कहो, निकल जाय । सोने ही नहीं देता ।" "हुजूर, इतनी रात को वह कहाँ जायगी !" " "कहाँ जायगी ? क्यों सारी दुनिया तेरी सराय के ऊपर है ? अस्तबल में रक्खो, कहीं रक्खो, जहाँ से शोर हमें बिल्कुल न आए। समझे ?” सरायवाला इसको पैसे वाला जान नाखुश नहीं करना चाहता था । उसे प्राप्ति की करारी आशा थी । उसने बच्चे की माँ के पास जाकर कहा, “बराबर में एक फौज के सरदार ठहरे हैं। बच्चे के रोने से उनकी नींद में खलल पड़ता है । हो सकता, तो उसे यहाँ से ले जाओ ।" अगर बच्चा चुप नहीं स्त्री ने गिड़गिड़ा कर कहा, "बच्चे की ऐसी हालत में मैं उसे और कहाँ ले जाऊँ ? जाड़ों के दिन हैं, आधी रात हो गई है। कुछ घंटे और ठहरो मालिक, तड़का होते ही मैं चली जाऊँगी।” भठियारे ने कहा, "नहीं, तुम अभी चली जाओ । नहीं तो वह खफा होंगे ।" स्त्री ने कहा, "उन सरदार जी से हाथ जोड़कर कहो, मैं दुखिया हूँ । थोड़ी देर के लिए और मेहरबानी करें। बच्चे के बाप

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