Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 225
________________ २१० जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] मर्द समझते हो ? चलो हटो।" और जोर से धरती को कुचलता हुआ वह उस ओर चला, जिधर से बच्चे की आवाज आ रही थी। कोठरी में दिया मद्धम जल रहा था और दोनों हाथों में माथा थामे एक औरत बैठी थी। पास नंगी धरती पर पड़ा हुआ बच्चा चिल्ला रहा था। "अन्दर कौन है ?" अन्दर से कोई नहीं बोला। इस व्यक्ति ने और जोर से कहा, "हम कहते हैं, अन्दर कौन है ? क्या तू बहरी है ?" स्त्री जरा जोर से सिसकने लगी और चुप रही। "देखो, तुमको इसी वक्त बच्चे को लेकर चले जाना होगा। बच्चा रोता है, तो चुप नहीं रख सकतीं, और कहते हैं, तो मुँह से जवाब नहीं फूटता !" स्त्री चुपचाप उठी, बच्चे को उठाया और बाहर आकर उस व्यक्ति के पैरों में बच्चे को डालकर उसने कहा, "मैं चली जाती हूँ। इस बच्चे को तुम ठोकर मारकर जहाँ चाहे फेंक दो।" और वह चलने लगी। वह व्यक्ति, जाने क्यों, एक दम सकते-से में पड़ गया । उसने कहा “ठेरो, ठैरो । कहाँ जाती हो ?" स्त्री ने कहा, "जहाँ मौत मिले, वहीं जाती हूँ।" व्यक्ति में एक दम परिवर्तन होने लगा। उसने पूछा, "तो भी तुम कहाँ से आ रही हो और किधर जाती हो ? स्त्री ने कहा, “पाँच बरस से इस बच्चे का वाप नहीं लौटा । वह लड़ाई पर गया है । कौन जाने, मर गया हो । कौन जाने

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