Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 204
________________ पढ़ाई १८६ और जो वहाँ होना आरम्भ हो गया, उसकी स्पष्ट ध्वनि भी मेरे कानों पर आकर थप्पड़ों-सी बजने लगी ! मैं उस ओर से उदासीन होकर बाहर छज्जे पर आ गया, और गली देखने लगा । नीचे देखता हूँ, इस चौबीसों घण्टे चलने वाली पत्थर की गली को तो ये बालक लोग भरा - समन्दर बना बैठे हैं, और इस समन्दर में अकेली खड़ी हुई नूनी नाम की मछली झुककर अपने टखने छूकर, कह रही है, "इत्ता !" ५ पर मुझे तो कुछ भी मालूम न था । मछली का नाम नूनी तो नहीं है, गोपीचन्द है । और हरिया के साथ और पाँच-सात जने मिलकर, किनारे खड़े-खड़े कह रहे हैं " गोपीचन्दर, भरा समन्दर, बोल मेरी मच्छी, कित्ता पानी ?......" और गोपीचन्दर जैसे सुन्दर नाम वाली मीन अब के घुटनों तक ही झुक सकती है, क्योंकि समुद्र इस बीच घुटनों तक बढ़ आया है, और बतलाती हैं, “इत्ता !" समुद्र क्षण-क्षण बढ़ रहा है, और उस मछली के मन की चौकसी भी बढ़ रही है। वह देखो, जो अबके गाकर और चिल्लाकर पूछा गया है, "कित्ता ?" तो वह दोनों हाथों को कटि पर रख कर, एक ठुमकी लगाकर बतला रही है, "इत्ता । " हाय-हाय, देखो उस बेचारी के कटि तक समुद्र का पानी आ गया है । वह सिर तक डूबने को होती जा रही है । और मुसाफिर भाई, तुम बेखटके इस गली में से निकलते चले जाओ। तुम्हारे लिए रोक-टोक नहीं है । पानी तुम्हें नहीं छुएगा । किनारे खड़े ये जो ऊधम करते हुए लड़के-लड़कियाँ हैं,

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