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जनता में
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तरह
के सभ्य विचार खींच कर अपनी अरुचि पर चढ़ाने लगा । मुझे खीज हुई, क्षोभ हुआ ।
सोचा गांधीजी का तीसरे दर्जे में चलना एकदम सही नहीं था । वह ड्रामा था, आदर्श नहीं था। जी हाँ, आदर्श किसी तरह नहीं हो सकता । आदमी को चढ़ना है, न कि उतरना ।
सोचा क्या इन जैसों को समकक्ष मानना होगा, इनके समकक्ष ? अँह, सब थोथा ड्रामावाद है । यह आदर्शवाद भी तो नहीं है। मुझे इस फेर से निकलना चाहिये । पैसा ? पैसा सवाल नहीं है।
कम खर्ची गुण नहीं है। कम खर्ची उनके लिए है जिनके पास खरचने को पैसे नहीं हैं।
पैसे हैं तो तीसरे दर्जे में बैठना गुनाह है। कि -
पुस्तक में विराजमान रसेल महोदय की सुधि हुई । केन्द्रित शासन व्यक्ति की सर्जनात्मक उद्भावना को मन्द करने का कारण होता है—यह ठीक है । संस्कृति उस उद्भावना का परिणाम है, ठीक है । प्रतिभा और शासन का विरोध है, ठीक है । मैंने अनुभव किया कि डिब्बे में चाहे असभ्यता हो मेरे हाथ की इस पुस्तक में सभ्यता एकदम सही बनकर बैठी हुई है ।
"बाबू जी ... बाबू जी !!” देखा सामने की बैंच के मारवाड़ी भाई पानी चाहते हैं। रसेल को औंधा करके अलग रखा, और लालाजी के हाथ से लोटा लिया और सुराही से उसमें पानी डाल कर पेश किया ।
बालक माँ की गोद में था । कोई वर्ष भर का होगा। बड़ी विस्मित आँखें । हरी और खुली मुद्रा ।