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जनता में
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उसके बाद से तो वे दस जने थे और एक वह बालक था । मानो उन सबकी जान उस एक में थी । हर स्टेशन पर कुछ-नकुछ छोटी-मोटी चीज खरीदकर बच्चे को देने में मानों आपस में उन्होंने होड़ लगा रखी थी ।
होते-होते कानपुर आ गया और काठ किवाड़ सहित वे वहाँ उतरने को हुए । तंजेबी भाई ने कहा, "हमारे किशनजी महाराज सो रहे हैं क्या ?”
माँ ने घूँघट में से फुसफुसाकर कुछ कहा और शायद चाहा कि बालक जग जाय ।
मारवाड़ी बन्धु ने कहा, “हाँ सो रहा है ।"
तंजेब ने पुकार कर कह, "पेड़ा ! ओ पेड़े वाले ।”
दो पेड़े लेकर मारवाड़ी बन्धु को देते हुए कहा, "यह उन्हें देना और कहना, हम पैंजनियाँ लेकर आयेंगे। अभी तो जा रहे हैं। आप कहाँ रहते हैं ?”
बन्धु ने मानो फटकार में शब्द फेंकते हुए कहा, “भियाणी ।” "अच्छा तो उसे प्यार करना। बहूरानी, उसे हम सब का बहुतबहुत प्यार देना ।"
सब की ओर से प्रतिनिधि बनकर उसने यह कहा और वे लोग उतरकर शनैः-शनैः हम से खो गये। सामने से उनके विलीन हो जाने पर मारवाड़ी भाई ने धीमे से मुझ से पूछा, "बाबू जी ! ये कौन थे ? बड़े गँवार थे ।"
मैंने उनकी ओर देखा और चुप रहा ।
" बाबू जी, सच कहना, मुसलमान तो नहीं थे ?" अचरज से मैंने पूछा, "क्यों ?”