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दिल्ली में
१६३ बच्चा नहीं रह गया है । देखा कर, कहाँ बैठना, कहाँ न बैठना ।" करुणा अपने उन भविष्य-स्वप्नों में इतनी आत्मसात् हो गई है कि समझती है, पाँच बरस का लड़का बच्चा नहीं है । अब उसे कौन समझाएगा? समझाने से तो वह न समझती; पर अगर जानती कि उसकी यह बात पतिया सुन रही है, तो वह कभी ऐसा न कहती।
पतिया ने सुना, अपने आप कहा-"हूँ।" कुछ दिनों बाद एक दिन पतिया और पृथ्वीचन्द लापता हो गए।
सेठ धनबढ़राय ने अपनी लड़की को बहुतेरा ढूँढा, और वकील प्रमोदचन्द ने अपने पृथ्वीचन्द को बहुतेरा ढूँढा–पर कोई न मिला । आखिर लड़की को खोए सात साल हो गये थे तब, और लड़के को खोए लगभग दो साल हो गये थे तब, दोनों एक ही क्षण में एक ही जगह मिले । किन्तु एक दुर्घटना हो गई । इस कारण वे दोनों मिले, फिर भी कोई न मिला-मिले तो एक दूसरे से सेठ धनबढ़राय और वकील प्रमोदचन्द मिले और दोनों ने अपना माथा ठोक दिया ।
बात यों हुई
काशी में जबर्दस्त मेला था । दशाश्वमेघ घाट भीड़ से खचाखच भरा था। मेले में करुणा के साथ प्रमोदचन्द भी गये थे और सेठानी के साथ धनबढ़राय भी। दोनों उस समय गंगा-स्नान को वहाँ आए थे । प्रमोदचन्द ने दशाश्वमेध मन्दिर के दाईं ओर, जरा दूर स्नान किया, सेठ जी ने बाईं ओर । जब स्नान करके ये लोग चले करुणा और प्रमोद, सेठानी और धनबदराय-ऊपर की सीढ़ियों के पास, जहाँ से सड़क दिखने लगती है-उन्होंने देखा एक