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दिल्ली में
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" सोच तो रही हूँ, मैं एक को रखने की। बच्चा रख लेगी ? - है कौन जात ? "
"बनैनी हूँ माजी, अग्रवाल । करम का दोष है । बच्चे को खूब रख लूँगी—खूब रख लूँगी - देख लेना तुम माजी ।" "तुझे कोई जानता भी है ?"
"जानता तो कौन मुझे माजी ! गरीबनी हूँ, विपदा की मारी हूँ । तुम्हारा नेक बिगार हो जाय, मेरा जो चाहे कर लेना । माजी, कुछ हो, ऐसी-वैसी तो हूँ नहीं ।"
इसी वक्त भीतर से पृथ्वीचन्द ने चीख मारी । करुणा दौड़ गई— पुकारती मनाती गोदी में उठा लाई ।
उस स्त्री की आँखें बच्चे पर से फिर डिग नहीं सकीं। बोली, "कैसा चाँद - सा बच्चा है। कितने का होगा, बहूजी ?"
" होगा कोई छः- सात महीने का । "
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“देखूँ माजी " — कहकर उसने करुणा के हाथ से बच्चे को ले लिया । लेकर उस पर हँसी, रोई, चूमा, पुचकारों, उछाला, बिठाया और फिर छाती से चिपटाकर आँगन में डोलने लगी, कहती जाती थी - "आ री चिड़िया आ जारी, चन्दा चिड़िया ला जा री ।"
करुणा ने देखा, बच्चा मन गया है, और सोता जाता है । और यह स्त्री बड़े प्यार से बच्चे को खिलाती है। पूछा, "तेरा नाम क्या है ?”
" नाम – ?”
"हाँ ।"
" नाम मेरा माजी है...... पतिया, पतिया ।” " तो तू रहेगी पतिया ?"
“हाँ, रहूँगी, जरूर रहूँगी, माजी । तुम्हारे हाथ जोड़ ... मैं