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जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग]
विनोद ने त्रस्त भाव से कहा, "अँह, जल्दी से श्रा। देर कर रही है । फिर सारा खेल बिगड़ जायगा।" ___ यह सुनने से पहिले ही आने को वह उठ खड़ी हो गई थी। "लो, आती हूँ" कहती-कहती वह आ गई, और विनोदं का, मानों बड़ी झुंझलाहट में हाथ पकड़ कर बोली, “बोलो।" ___इस पाणिग्रहण ने हठात् विनोद की दृष्टि को सुनयना की ओर उठा दिया । बोले, "देखो।"
लेकिन जहाँ देखने को कहा गया वहाँ देखने को खाक भी न था। बालक यथावत् सो रहा था। __ सुनयना ने कहा, "क्या देखू ?"
विनोद ने अभियुक्त की भाँति उत्तर दिया, "अभी-अभी हँस रहा था । ठैरो, अब फिर हँसेगा।"
सुनयना बोली, “मैं तो नहीं हैरती। पराँवठा जल जायगा।"
विनोद ने हाथ पकड़ कर कहा, "ठेरो भी। बस, जरा ठैरो। तुम इतनी देर में तो आई, मैं क्या करूँ ? अब फिर हँसेगा। __"तुम तो ठाली हो" कहकर ठहरने को सम्मत होकर वह खड़ी रही।
लेकिन प्रद्युम्न अब क्यों हँसे ? हँसने के इरादे का कोई चिन्ह उसके मुख पर नहीं दीखा।
विनोद ने कहा, "हँसेगा। देखती रहो हँसेगा, एक बार जरूर।"
दिलासा मानो उसने अपने प्रवंचित हृदय को दी। सुनयना जायगी तो नहीं, लेकिन बोली, "मैं तो जाती हूँ।"
विनोद ने कहा, "न हँसे तो मेरा नाम ।" सहसा, देखा कि प्रद्युम्न का मुंह खुला