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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] चलकर एक बड़ी खिलौनों की दुकान पर पहुँचे । धनीचन्द ने कहा, “यहाँ से खिलौने लोगे? यहाँ तो सब विलायती होंगे, और महँगे मिलेंगे। तुम तो, सुनते थे, इनके बड़े विरोधी हो।"
विनोद ने कहा, "अँह । अब बच्चे के लिए क्या विरोध और क्या सिद्धान्त ।" ____पहले बच्चों की बग्घियाँ देखीं । चालीस से शुरू करके नब्बे रुपये तक की थीं । एक सौ रुपये की भी थी जो अलहदा रखी थी। कोई खास अच्छी हो, ऐसा तो नहीं जान पड़ता था । पर अलहदा विशिष्ट ढंग से रख कर ज्यादे दाम माँगने से उसी चीज के ज्यादे दाम भी उठाये जा सकते हैं। लेकिन धनीचन्द इन सब चालों को खूब जानते हैं। उन्होंने ५५) की एक बग्घी का निर्णय दिया, और तर्क से सिद्ध किया कि वही चीज़ ली जा सकनी चाहिए । पर विनोद है अल्हड़, उसने वह सौ वाली ही बिना ज्यादा बात किये, ले ली। फिर लिया एक 'बेबी,' जिसको विनोद ने जेब से फ्रीता निकाल कर नाप कर देख लिया, ठीक २१ इंच पाँच सूत का है । फिर और छोटे-छोटे खिलौने लिये । फिर दुकान वाले से कहा गया कि उस बच्चे को कपड़े-वपड़े पहनाकर खूब अच्छी तरह सजा दिया जाय । उसको गाड़ी में रख दिया जाय । बाकी खिलौनों में कुछ उनके पास ही इधर-उधर डाल दिये जायँ, कुछ ऊपर गाड़ी की छत में बाँध कर लटका दिये जायँ, जिससे कि गाड़ी में लेटे हुए बच्चे को दीखें । इतना करने के बाद गाड़ी उनके घर पहुँचवा दी जाय । -
दूकान से निकलकर रास्ते में विनोद ने कहा, "धनीचंदजी, मुझे एक नौकर चाहिए । मैं जवान, खूबसूरत, पढ़ा-लिखा नौकर चाहता हूँ । ऐसे-वैसे हाथ में बच्चा देना ठीक नहीं।"