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जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग की । ठहरना बिल्कुल नहीं हो सकता । हाथ लपकना नहीं छोड़ सकते।
विनोद ने डाक को नीचे डाला। आलोचनार्थ आये हुए साप्ताहिक पत्र को बिछाया और बालक को उठाकर उसके पास छोड़ दिया । कहा, "ले, कर आलोचना । अब तू ही कर डाल । लेकिन थोड़ी करियो, कहीं समूची ही कर डाले कि कुछ मेरे लिए बाकी ही न बचे।" ____ अब अच्छी तरह चबा-चबूकर खाये बिना तो पूरी तरह वस्तु का स्वाद जाना नहीं जा सकता, और उसके तत्त्व के सम्बन्ध में यथार्थ आलोचना की नहीं जा सकती। इसलिए जोर-शोर के साथ बालक ने यही उपक्रम बाँधना प्रारम्भ किया । नीचे पड़े उस साप्ताहिक की छाती पर सवार होकर दोनों हाथों से उसके मर्म को पकड़कर अब उदरस्थ किया जायगा।
उसने दोनों हाथ पत्र पर देकर मारे, फिर इकट्ठा करके उनकी मुट्ठी बाँध कर मुँह तक पहुँचाया। मुंह के अन्दर जब केवल वे बँधी मुट्टियाँ ही पहुँची, उनके भीतर से जब कुछ और रस नहीं प्राप्त हुश्रा, तब पता चला कि इस धराशायी दलित अपदार्थ ने भयंकर धोखा दे डाला है। अब मिच-मिचाकर हाथ मारे गये । इस बार उन दोनों मुट्ठियों के बीच में सिमटा-सिमटाया अखबार का बहुत-सा भाग भी उठा चला आया। उसमें जितना कुछ मुह में दाखिल हो सका, उसे आम की तरह चूस कर स्वाद की परख प्रारम्भ हुई। इधर हाथ अखबार की खींच-तान में लगे रहकर कागज़ की मजबूती जाँच रहे थे।
किन्तु पत्र की अत्यन्त मिठास और रस-हीनता को जान लेने में विशेष देर न लगी । तब बालक ने जोर-जोर से चीख कर इसकी