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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
और साँझ अँधेरे वापस आते हैं। बाद खाने के समय अलावा कोई घण्टाभर घर में रहने पाते होंगे। रात नींद की होती ही है । पर दिनमणि की परेशानी की न पूछो। वह रामचरण को लेकर हैरान है। अकेले में बैठकर सोचती है, दो जनियों से पूछकर वह विचारती है। पर ठीक कुछ समझ नहीं आता कि रामचरण से कैसे निबटे ? जानती है कि लड़का यह सुशील है, खोटी आदत कोई नहीं है । किताबें सदा अच्छी और धर्म की पढ़ता है । पर उसकी तबीयत की थाह जो नहीं मिलती । यह गुमसुम रहता है। चार दफे बात कहते हैं तब जाकर कहीं जवाब देता है । इस कारण आये दिन कलह बनी रहती है। इसमें दिनमणि को अपनी जुबान खराब करनी पड़ती है और रामचरण अटल रहता है, वह दस तरह भीकती है— फटकारती है । डपटती है और कहती है मैं क्या भौंकने के लिए हूँ ? पर रामचरण को जो करना होता है करता है और नहीं करना होता वह नहीं करता । सारांश, दिनमणि कह सुनकर अपने आप में फुंक रहती है ।
दिनमणि ने अब अपने भीतर से सीख लेकर रामचरण से कहना-सुनना लगभग छोड़ दिया है । कुछ होता है तो पुत्र के पिता पर जा डालती है । सवेरे का स्कूल है और आठ बज गये हैं पर रामचरण अभी खाट पर पड़ा है। पड़ौस के सब बालक स्कूल गये, खुद घर की छोटी विन्नी नाश्ता करके स्कूल जा चुकी है। आँगन में धूप चढ़ाई है, लेकिन रामचरण है कि खाट पर पड़ा है।
दिनमणि ने पति से कहा, "सुनते हो जी, लड़का सो रहा है और वक्त इतना हो गया । उसे क्या स्कूल नहीं जाना है ? जगा क्यों नहीं देते ?"