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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
मैंने कहा, "दस का नोट ही दे दो ।" सकपकाकर मित्र मेरा मुँह देखने लगे, "अरे यार, बजट बिगड़ जायगा । हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं ।"
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" तो जाने दो; यह दया ही इस जमाने में बहुत है । ” – मैने कहा । मित्र चुप रहे । जैसे कुछ सोचते रहे । फिर लड़के से बोले"अब आज तो कुछ नहीं हो सकता । कल मिलना । वह 'होटल - डि-पव ' जानता है ? वहीं कल १० बजे मिलेगा ?"
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“हाँ... कुछ काम देंगे “हाँ-हाँ, ढूँढ़ दूँगा।”
“ तो जाऊँ ?” — लड़के ने निराश आशा से पूछा । “हाँ” – ठंडी साँस खींचकर फिर मित्र ने पूछा, “कहाँ सोयेगा ?"
“यहीं-कहीं, बेंच पर पेड़ के नीचे - किसी दुकान की भट्टी में । "
बालक कुछ ठहरा। मैं असजमन्स में रहा । तब वह प्रेतगति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े | हवा तीखी थी - हमारे कोटों को पारकर बदन में तीर - सी लगती थी ।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा - " भयानक शीत है । उसके पास कम - बहुत कम कपड़े...!"
"यह संसार है यार !” मैंने स्वार्थ की फिलासफी सुनाई "चलो, पहले विस्तर में गर्म हो लो, फिर किसी और की चिन्ता करना । " उदास होकर मित्र ने कहा, "स्वार्थ ! — जो कहो, लाचारी कहो, निठुराई कहो या बेहयाई !”
दूसरे दिन नैनीताल-स्वर्ग के किसी काले गुलाम पशु के दुलार
हजूर