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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
देखी । मसूरी से प्रद्युम्न के बाबा ने उसे बहुत - बहुत याद किया है । विनोद को छुट्टी पाते ही प्रद्युम्न को वहाँ ले आना चाहिए । दादी तो प्रद्युम्न की ही रट लगाये रहती है।
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विनोद ने देखा छुट्टी में अब पाँच-सात रोज तो रह ही गये हैं। लिख दिया – “अम्माँ, बस अब आया । अम्माँ को छोड़कर मुझसे क्या रहा जाता, पर यह अदालत है, मनहूस । सनीचर को चल दूँगा ।" और सोचा, कैसा बड़भागी है मेरा प्रद्युम्न, सबका मन मोह रक्खा है, सबकी आँखों का तारा बन गया है । हाथमुँह धोकर वह पालने की तरफ चला ।
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पिछले अध्याय में नाम की बात छेड़कर उसे कहना भूल गये । नामों की संख्या असंख्य है, और उनमें रोज बढ़ती होती जाती है । यह प्रद्युम्न नाम तो नाम नहीं है। अच्छे सभ्य अतिथियों को बतलाने के ही काम में यह आता है, व्यवहार में नहीं आता । यों भी अधूरा है । यह नाम कोई ले ही, तो 'बाबू प्रद्युम्न - कुमार साहब' लेना चाहिए, तब पूरा होता है ।
नामों में शामिल हैं— पदो, पद्दी, पदुआ, पर्दमा, पम्मू, पेमो, पद्मा, पद्मावती, आदि कच्चे-पक्के सभी शिल्पकारों ने इस प्रद्युम्न नामक मूल धातु को मन चाहे अनुरूप गढ़ - गढ़ाकर अपने काम के लायक बना लिया है । कुटुम्ब का एक-दो वर्ष का बालक इसे देखकर कहता है - "पुन्" और मानों अपनी इस मौलिक शिल्पक्षमता का भान करा देने के लिए अपनी माँ की और मुड़कर कहता है - " अम्मा, पुन् ।" और कहकहा लगाकर हँसता है ।
विनोद बाबू की अँग्रेजी शिक्षा और अँग्रेजी प्रतिभाने भी इस