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जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] अब भी कुछ बोला नहीं। पिता को ऐसा लगा कि उन आँखों में पानी तिर पाना चाहता है। उन्हें कुछ समझ न आया। हठात् बोले, “माँ से नाराज नहीं होना चाहिए। भई वह जो कहती है तुम्हारे भले के लिए ही कहती है। आओ चलो, कुछ नाश्ता कर लो।"
रामचरण फिर एक बार मुंदी आँखों से देखकर मुंह लटकाये वहीं-का-वहीं खड़ा रह गया।
पिता ने इसपर किंचित् पुत्र को उपदेश दिया और फिर भी उसे वहीं अचल देखकर किंचित् रोष में उसे छोड़कर चल दिये । वहीं से पुकारकर पत्नी से उन्होंने कहा, "नहीं खाता है तो जाने दो।" और रामचरण के प्रति कहते गये, “हमारे बक्स में पर्स होगा, उसमें से अपनी इकन्नी लेते जाना समझे ? भूलना नहीं।"
रामरत्न संध्या बीते घर लौटे तो देखा कि रामचरण खाट पर लेटा हुआ है। और रोज अब तक वह खेल से मुश्किल से लौट पाता था। यह भी मालूम हुआ कि उसने खाना नहीं खाया है और उसकी माँ ने काफी उसे कहा-सुना है।
रामरत्न विचारशील हैं, पर उन्हें अति अच्छी नहीं लगती। सब सुनकर उन्होंने जोर से कहा, "रामचरण, क्या बात है जी ?"
दफ्तर से वह इसी उधेड़-बुन में चले आ रहे थे। डर रहे थे कि घर में कहीं बात बढ़ी न हो। उनके मन में पुत्र के लिए करुणा का भाव था। उन्हें अपना बचपन याद आता था कि किस तरह 'बचपन में उन्हें ही गलत समझा गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इन्ट्रन्स में पढ़ी 'होमकमिंग' कहानी का वह लड़का याद आता था, जिसका नाम चाह कर भी वह स्मरण न कर पाते थे। उसकी बात सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे। विचार करते थे कि