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फोटोग्राफी
गुजर चुके थे, पर हृदय-पटल पर वह दिन जो चिन्ह छोड़ गया था, उसे मिटा न सके थे। इस लम्बे काल और उसकी विभिन्न व्यस्तताओं ने उसे शुष्क कर दिया था; पर इस पत्र के इन शब्दों ने मानों एक दम उसे फिर हरा कर दिया-उसमें चैतन्य ला दिया ।
रामेश्वर ने सोचा, “श्याम !-अहा ! वह भी तो साथ होगा!"
समय बिताते-बिताते जब चार बजने पर रामेश्वर पार्क में पहुँचा, तो 'श्याम की अम्माँ उसकी तरफ आ रही थीं।
"तुम्हारा नाम क्या है ?" "रामेश्वर ।"
"मैं अब नाम से पुकारूँगी। रामेश्वर, क्या तुम अब फोटो उतार सकते हो?"
रामेश्वर ने देखा, वही अम्माँ हैं; पर फिर भी कुछ और हैं। उनके इस व्यग्र आग्रह को समझ नहीं पाया, थोड़ा डरने-सा लगा। बोला, "अभी तो कैमरा नहीं है । अभ्यास भी नहीं है।"
"कैमरा ला नहीं सकते।" "अभी ?" "हाँ, अभी !” "अभी कहाँ से मिलेगा ?"
"क्यों ? क्यों नहीं मिलेगा ? तुम तो नेता हो, इतना नहीं कर सकोगे ?"
_ "जाता हूँ-कोशिश करूँगा।"-रामेश्वर ने बड़ा कड़ा दिल करके कह दिया । रामेश्वर जब विदा होकर कुछ ही दूर गया होगा, कि उन्होंने फिर बुलाकर उससे कहा, "रामेश्वर सुनो, ये रुपये लो, कैमरा न मिले, तो नया खरीद लाओ।"
"नहीं, नहीं..."