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विभाग नहीं बन सकता । क्योंकि आपके पास इस विभाग ( यह प्रमाण और दूसरा अप्रमाण ) के करनेका कोई सबूत ही नहीं, क्योंकि इससे उलटा भी हो सकता, अर्थात् जिसको कि आप अप्रमाण कहते हैं, उसको हम प्रमाण, और जिसको आप प्रमाण बतलाते हैं, उसको हम अप्रमाण भी कह सकते हैं । इस लिये जिस तरह आप ज्ञानके अप्रमाण होनेमें दोपोंको कारण बतलाते हैं, उस ही तरह ज्ञानके प्रमाण होनेमें गुणोंको भी कारण अवश्य मानना चाहिये । इस प्रमाण-सच्चे ज्ञानकी उत्पत्ति, परसे ही होती है, परन्तु सच्चे ज्ञानकी सचाईका निश्चय कहीं पर ( अभ्यस्त दशामें अर्थात् जिसको कि हम पहले कई दफे जान चुके हैं ऐसी हालतमें ) खतः कहिये अपने आप हो जाता है और कहीं पर (अनभ्यस्त दशामें जिसके कि जाननेका पहले पहल मौका पड़ा हुआ है ऐसी हालत ) परतः कहिये दूसरे अन्य कारणोंसे होता है । फर्ज कीजिये जैसे कितने ही एक लड़कोंने तालाबमें स्नान करनेके लिये तय्यारी की और वे फौरन ही निधड़क हो कर उस तालाबमें, जिसको कि वे पहले कई दफे जान चुके हैं, जाकर. स्लान करते हैं तो ऐसी हालतमें उनको जिस समय तालाबका ज्ञान हुआ, उस समय उसकी सचाईका भी ज्ञान हो लिया. । यदि ऐसा न होता, तो वे निधड़क होकर हर्गिज भी दौड़ कर न जाते, इसलिये मालूम हुआ कि उनको उस तालाबकी सचाईका निश्चय, पहले ही ( उसके ज्ञान होनेके समय ही ) हो चुका था,
और एक दूसरी जगह एक मुसाफिर, जो कि जंगलमें जा रहा था, दूर ही से किसी एक पदार्थको, जिसको कि इस समय मरीचिका, या नदी, या तालाब, कुछ नहीं कह सकते, देख कर ज्ञान हुआ " वहाँ