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[२१५] ' कार्य तो मूर्को सरीखे दीखते हैं. क्योंकि नीतिकारने भी ऐसा
ही कहा है कि-"गंधः सुवर्णे फलमिक्षुदंडे नाकारि पुष्पं खलु चंद नेषु ।। विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोपि न बुद्धिदो भूत् ॥ १॥" अथवा जो ईश्वर सरीखा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु इस लोकका कर्ता होता, तो जगत्में कोई पाप नहीं होता । क्योंकि जिस समय कोई मनुष्य कुछ भी पाप करनेको उद्यमी होता है, तो ईश्वरको यह बात पहिलेहीसे मालूम हो जाती है क्योंकि वह सर्वज्ञ है । यहि मालूम नहीं होती है तो ईश्वर सर्वज्ञ नहीं ठहरेगा. फिर ईश्वर मनुष्यको पाप करनेसे रोक भी सक्ता है. क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है. यदि नहीं रोक सक्ता है तो वह सर्वशक्तिमान् नहीं ठहर सकता, यदि कहोगे कि "यद्यपि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशकिमान् है परंतु उसको क्या गर्न है कि वह उसको पाप करनेसे रोके ? तो वह दयालु भी है कि जिससे उसका रोकना आवश्यक ठहरा. जैसे कि एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को मारनेके लिये चला और शहरके न्यायवान् राजाको यदि यह बात मालूम हो जाय तो उसका कर्तव्य यह है कि घातक को रोककर खून न होने देवे, न कि खून होनेपर घातक को दंड दे अथवा किसीका बालक भंगके नशेमें किसी अंधकूपमें गिरता हो तो उसके साथी पिताका फर्ज है कि उसको कूपमें न गिरने दे. न कि उसको कूपमें गिरने पर निकाल कर दंड दे. ठीक ऐसी ही अवस्था ईश्वर और मनुष्यके साथ है. ईश्वरका कर्तव्य है कि मनुष्यको पाप न करने दे. न कि उसके पाप करने पर उसको दंड दे. इसलिये यदि ईश्वर सरीखा सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् और दयालु इस लोकका कर्ता होता तो लोकमें किसी भी प्रकारके पापकी प्रवृत्ति नहिं होती परन्तु ऐसा