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भी आकाशके साथ दोष आता है क्योंकि यह " सावयव " ऐसी बुद्धिका विषय होता है. यदि आकाशको निरवयव माना जावे. तो इसमें व्यापित्व धर्म नहीं रह सकता है, क्योंकि, जो वस्तु निरवयव होती है वह व्यापी नहीं हो सकती तथा जो वस्तु व्यापी होती है यह निरवयव नहीं हो सकती. क्योंकि, ये दोनोंही धर्म परस्पर विरुद्ध हैं. इसका दृष्टान्त परमाणु निरवयव है. परमाणु निरवयव है इसीसे वह व्यापी नहीं है. अतः आकाश "व्यापी " ऐसा व्यवहार होनेसे निरवयव नहीं है किन्तु सावयवही है. अतएव तृतीय तथ चतुर्थ पक्ष माननेमें आकाशके साथ अनैकान्तिक दोष, हेतुमें आता है. इस प्रकार प्रथम पक्षके चारों अर्थों में दोष होनेसे चारोंही पक्ष अनादरणीय हैं.
इस दोष दूर करनेका यदि द्वितीय पक्ष अर्थात् " प्राक् असत् पदार्थ के स्वकारणसत्तासमवायरूप कार्यत्वको हेतु माना जावे तो स्वकारणसत्तासमवायको नित्य होनेसे तथा कर्तृविशेषजन्यत्वादि " - साध्य के साथ सर्वथा न रहनेसे यह हेतु असंभवी है. यदि पृथिव्यादि - कार्योंके साथ इसका रहना मान ही लिया जावे तो पृथिव्यादि कार्यको भी इसी समान नित्य होनेसे बुद्धिमत्कर्तृजन्यत्त्व किसमें सिद्ध होगा ? क्योंकि, नित्य पदार्थों में जन्यपना असंभव है. तथा कार्यमात्रको पक्ष होनेसे पक्षान्तःपाति जो योगियोंके अशेष कर्मका क्षय उसमें कार्यत्वरूप हेतु नहीं घटित होनेसे इस हेतुमें भागासिद्ध भी दोष है. क्योंकि, कर्मके क्षयको प्रध्वंसाभावरूप होनेसे स्वकारणससमवाय उसमें सम्भव नहीं हो सकता. क्योंकि, स्वकारणसत्तासमवायकी सत्ता भाव पदार्थही में हैं । यदि “ किया हुआ है " इस प्रकारकी बुद्धिका जो विषय हो वह कार्यत्व है. ऐसा कहते हो
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