Book Title: Jain Siddhant Darpan
Author(s): Gopaldas Baraiya
Publisher: Anantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti

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Page 114
________________ [ १३९ ] ग्रहण करना चाहिये । जो पुरुषके प्रयोगसे होय, उसको प्रायोगिक : बन्ध कहते हैं । वह प्रायोगिक बन्ध दो प्रकारका है एक पुद्गलविषयिक दूसरा जीवपुद्गल विपयिक | पुद्गलविपयिक लाक्षाकाष्टादिकहैं, और जीवपुद्गलविपयिकके दो भेद हैं एक कर्मबन्ध और दूसरा नोकर्मबन्ध । भावार्थ- पुद्गलके दो भेद हैं, एक अणु और दूसरा स्कन्ध | स्कन्धके यद्यपि अनन्त भेद हैं तथापि संक्षपसे बावीस भेद हैं और एक भेद अणुका, इस प्रकार पुद्गलके सब मिलकर तेवीस भेद हैं | इनही तेवीस वर्गणा कहते हैं । यद्यपि ये समस्त वर्गणा पुलकी ही है, तथापि इनमें परमाणुओंमेंसे अठारह वर्गणाओंका जीवसे कुछ सम्बन्ध नहीं है, और पांच वर्गणाओंको जीव ग्रहण करते हैं । उन पांच वर्गणाओंके नाम इस प्रकार हैं; १ आहारवर्गणा, २ तैजसवर्गणा, ३ भाषावर्गणा, ४ मनोवर्गणा और ५ कामीणवर्गणा । आहारवर्गणासे औदारिक ( मनुष्य और तियंचोंका शरीर ), वैयिक ( देव और नारकियोंका शरीर ) और आहारक (छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके शंका निवारणार्थ केवलीके निकट जानेवाला सूक्ष्म शरीर ) ये तीन शरीर और श्वासोच्छास बनते हैं, तेजस वर्गणास तैजसशरीर ( मृतक और जीवित शरीरमें जो कान्तिका भेद है, वह तैजसशरीरकृत है । मृत्यु होनेपर तैजसशरीर जीवके साथ चला जाता है) बनता है, भापावर्गणासे शब्द बनते हैं, मनोवर्गणासे द्रव्यमन बनता है जिसके द्वारा यह जीव हित अहितका विचार करता है, और कार्याणवर्गणासे ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म ( इनका विशेष खरूप आगे लिखा जायगा ) बनते हैं । जिनके निमित्तसे यह जीव चतुर्गति रूप संसारमें भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुःख पाता है और जिनका क्षय होनेसे यह जीव

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