Book Title: Jain Siddhant Darpan
Author(s): Gopaldas Baraiya
Publisher: Anantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ [१५१] द्रव्योंमेंसे पुद्गलद्रव्यका कथन समाप्त हो चुका, आकाश काल और जीवका कथन आगे किया जावेगा । धर्म और अधर्म द्रव्यका निरूपण इस अधिकारमें किया जाता है। __ संसारमें धर्म और अधर्म शब्दसे पुण्य और पाप समझे जाते हैं । परन्तु यहांपर वह अर्थ नहीं है । यहां धर्म और अधर्म शब्द द्रव्यवाचक हैं, गुणवाचक नहीं हैं । पुण्य और पाप आत्माके परिणाम विशेष हैं, अथवा "जो जीवोंको संसारके दुःखसे छुड़ाकर मोक्ष सुखमें धारण करता है, सो धर्म है और इससे विपरीत अधर्म है" यह अर्थ भी यहांपर नहीं समझ लेना चाहिये। क्योंकि ये भी जीवके परिणाम विशेष हैं । यहांपर धर्म और अधर्म शब्द दो अचेतन द्रव्योंके वाचक हैं । ये दोनों ही द्रव्य तिलमें तेलकी तरह समस्त लोकमें व्यापक हैं । धर्म द्रव्यका खरूप श्रीमत्कुन्दकुन्दखामीने इस प्रकार कहा है: गाथा। धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं । लोगोगादं पुढं पिदुलमसंखादि य पदेसं ॥ १ ॥ अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहि परिणदं णिचं । गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकजं ॥२॥ .. उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं धम्म दच्वं वियाणेहि ॥ ३॥ अर्थात्-धर्मास्तिकाय स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्दसे रहित है, अतएव अमूर्त है, सकल लोकाकाशमें व्याप्त है, अखंड, विस्तृत और असंख्यात प्रदेशी है । षट्स्थानपतितवृद्धिहानि (इसका खरूप

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169