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[२०१] 'विदेहक्षेत्रमें चौयाही काल हमेशा रहता है । इनमें फेरफार
होता है । भरत-ऐरावतक्षेत्रमें पडेहुए पांच म्लेच्छखंड और । 'पर्वतकी प्रथम कटनी-विद्याधरश्रेणीमें दुषमासुपमाकी आदिसे ले अंतपर्यन्त अवसर्पिणीमें जीवोंकी आयु आदिकी हानि होती है और उत्सर्पिणीमें सुपमादुपमाकी आदिसे लेकर उसहीके । जीवोंकी आयु आदिमें वृद्धि होती है। देवगतिमें सुपमादुषमा गतिमें दुपमादुपमा मनुष्यगति तिर्यश्चगतिमें छहों काल होते हैं 'परन्तु कुमनुष्य भोगभूमिमें तीसरा और खयम्भूरमण दीपके आ
और खयम्भूरमण समुद्रमें पांचवा काल वर्तता है और अढाई व दो समुद्रोंसे बाहर सर्व द्वीप समुद्रोंमें तीसरा काल-जघन्य भोगभूमि रहती है । पहिले काल (सुपमामुपमा) का प्रमाण कोडीकोडी सागर है इतने दिनोंतक उत्तम भोगभूमि रहती है । उस समयके मनुष्य च तिर्यञ्चोंकी आयु तीन पल्य, शरीरकी ऊंचाई तीन कोश, शरीरका वर्ण सुवर्णवर्ण होता है और वदरीफल यानी वैर प्रमाण मुखाटु आहार तीन दिनके अंतरसे करते हैं । दूसरे काल (सुषमा) का प्रमाण तीन कोडाकोडी सागर है इतने दिनोंतक मध्यम भोगभूमि रहती है । उस समयके मनुष्य व तिर्यञ्चोंकी आयु २ पल्य शरीरकी ऊंचाई २ कोश शरीरका वर्ण शुक्ल होता है और बहेडाके बरावर सुखादु आहार दो दिनके अंतरसे करते हैं। तीसरे काल (सुपमा दुपमा) का प्रमाण १ कोडाकोडी सागर है । इतने दिनोंतक जघन्यभोगभूमि रहती है । उस समयके मनुष्य व तिर्यञ्चोंकी आयु १ पल्य, शरीरकी ऊंचाई १ कोश, शरीरका वर्ण हरित होता है और आंचलेके बराबर सुखादु
आहार १ दिनके अंतरसे करते हैं । इन तीनों कालोंमें रहनेवाले 'जीव भोगभूमिया कहलाते हैं । इन तीनोंही कालमें पैदा हुए