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जानना कि मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका चार प्रकार जिनधर्मके संघका सद्भाव पंचमकाल पर्यन्तही है । भावार्थ- पंचम कालके अन्तमें धर्म अग्नि और राजा इन तीनोंका नाश होकर छठे कालमें मनुष्य पशुकी तरह नग्न धर्मरहित मांसाहारी होते हैं । इस छठे कालमें मरेहुए जीव नरक और तिर्यच गतिकोही जाते हैं । तथा नरक और तिर्यच इन दो गतिमेंसे ही मरण करके इस छठे कालमें जन्म लेते हैं । इस छठे कालमें मेघवृष्टि बहुत थोड़ी होती है तथा पृथ्वी, रत्नादिक सारवस्तुरहित होती है । और मनुष्य तीत्रकषाययुक्त होते हैं । छठे कालके अन्तमें संवर्तक नामक बड़े जोरका पवन चलता है, जिससे पर्वत वृक्षादिक चूरचूर हो जाते हैं । तथा वहां वसनेवाले कुछ जीव मरजाते अथवा कुछ मूर्च्छित हो जाते हैं । उस समय विजयार्ध पर्वत तथा महागंगा और महासिन्धु नदियोंकी वेदियों के छोटे छोटे बिलोंमें उन वेदी और पर्वतके निकटवासी जीव स्वयमेत्र प्रवेश करते हैं । अथवा दयावान् देव और विद्याधर मनुष्ययुगल आदिक अनेक जीवोंको उठाकर विजयार्द्ध पर्वतकी गुफादिक निर्वाध स्थानोंमें ले जाते हैं । इस छठे कालके अंतमें सात सात दिन पर्यन्त क्रमसे १ पवन २. अत्यन्त शीत, ३ क्षाररस, ४ विप, ५ कठोर अग्नि, ६. धूल और ७ धुवां, इसप्रकार ४९ दिनमें सात वृष्टियां होती हैं । जिससे अवशिष्ट मनुष्यादिक जीव नष्ट हो जाते हैं । तथा विष और अग्निकी वर्षा से पृथ्वी एक योजन नीचेतक चूरचूर हो जाती है । इसहीका नाम महाप्रलय है। यहां इतनां विशेष जानना कि; यह महाप्रलय भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके आर्यखण्डों में ही होता है अन्यत्र नहीं • होता है । अत्र आगे उत्सर्पिणी कालके प्रवेशका अनुक्रम कहेत हैं ।