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'विचार सिद्ध हैं; भावार्थ- वर्णाश्रममतके माननेवाले उस उस वर्णा: श्रमकी क्रियाओं का साधन जीवका अस्तित्व मानकर करते हैं उनको शंकाकार क्षणिक विज्ञानाद्वैतवादी कहता है कि, जब जीवशब्द, जीवअर्थ और जीवप्रत्यय यह तीनोंही असिद्ध हैं अर्थात् इनका अस्तित्व असिद्ध है तो जीवके अस्तित्वको मानकर वर्णाश्रमसंबंधी क्रियाओं में प्रवृत्ति किस प्रकार ठीक होसक्ती है. जीवशब्दका वाच्य कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि आकाशके पुष्पसमान उसकी उपलब्धि ( प्राप्ति ) किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, जैसे वाह्य पदार्थ कुछभी • न होनेपर स्वप्नमें अनेक पदार्थ दीखते हैं उसही प्रकार विज्ञानही जीवाकार परिणमै है वास्तवमें जीव कोई पदार्थ नहीं है । विज्ञान -स्वयं न तो जीवखरूप है कौर न अजीवखरूत्र है किंतु केवल प्रकाशमात्र है, और इसही लिये शब्दद्वारा उसका प्रतिपादनभी. नहीं होसक्ता, कदाचित् उसका प्रतिपादनभी किया जाय तो जैसे स्वममें बाह्यवस्तु न होनेपर असत् वस्तुके आकारसे ज्ञानका प्रतिपादन (कथन) किया जाता है, उसही प्रकार विज्ञानकाभी निरूपण असत् आकारसेही किया जाता है, और जब असत् आकारसे उसका निरूपण है तो आकाशकुसुम प्रत्यय ( ज्ञान ) की तरह जीव प्रत्यय ( ज्ञान ) भी कोई पदार्थ नहीं है. तथा जीवशब्दभी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि जीवशब्द पदरूप अथवा वाक्यरूप इन दोनोंमेंसे एकरूपी सिद्ध नहीं होता उसका खुलासा इस प्रकार है कि, शब्द अनेक अक्षरोंका समूह है, उन अनेक 'अक्षरोंका एक कालमें उच्चारण नहीं हो सक्ता किन्तु उनका उच्चारण क्रमसे होता है; ये अक्षरभी वास्तव में कोई पदार्थ नहीं हैं किन्तु