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८ एक शब्द एक कालमें दो गुणोंका वाचक नहीं है, और जो ऐसा मानोगे तो सत् शब्द अपने अर्थकी तरह असत् अर्थका -भी प्रतिपादक हो जायगा, और लोकमें ऐसी प्रतीति नहीं है क्योंकि उन दो अर्थोके प्रतिपादक भिन्न भिन्न दो शब्द हैं ।
इस प्रकार कालादिकसे युगपत् भाव (अभेदवृत्ति) के असंभव होनेसे ( पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे ) तथा एक समयमें अनेकार्थवाचक शब्दका अभाव होनेसे आत्मा अवक्तव्य है. अथवा एक वस्तुमें मुख्य प्रवृत्तिकार तुल्यबलवाले दो गुणोंके कथनमें परस्पर प्रतिबन्ध ( रुका - वट ) होनेपर प्रत्यक्षविरुद्ध तथा निर्गुणताका दोष आनेसे विवक्षित दोनों गुणोंका कथन न होनेसे आत्मा अवक्तव्य है. यह वाक्य भी सकलादेशरूप है, क्योंकि परस्पर भिन्नस्वरूपसे निश्चित गुणीके विशेषणपनेसे युगपत् विवक्षित और वस्तुके अविवक्षित अन्य धर्मोको अभेदवृत्ति तथा अभेदोपचारसे संग्रह करनेवाले सत्व और असत्व गुणोंसे अभेदरूप समस्त वस्तुके कथनकी अपेक्षा है. सो यद्यपि उपर्युक्त अपेक्षासे आत्मा अवक्तव्य शब्दसे तथा पर्यायान्तरकी विवक्षासे अन्य छह भंगोंसेस वक्तव्य है इसलिये स्यात् अवक्तव्य है. यदि सर्वथा अवक्तव्य मानोगे, तो बंधमोक्षादि प्रक्रियाके निरूपणके अभावका प्रसंग आवेगा. और इनही दोनों धर्मों के द्वारा क्रमसे निरूपण करनेकी इच्छा होनेपर उसही प्रकार वस्तुके सकलस्वरूपका संग्रह होनेसे चतुर्थ भंग ( स्यादस्तिनास्ति च जीव: ) भी सकलादेश है, और सो भी कथंचित् है यदि सर्वथा उभयस्वरूप मानोगे तो परस्पर विरोध आवेगा, तथा प्रत्यक्षविपरीत और निर्गुणताका प्रसंग आवेगा. अब आगे इन भंगोंके निरूपण करनेकी विधि लिखते हैं ।