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व्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सत् और असत् भावकरके निबद्ध है । व्ययभी इध्यका नहीं होता किन्तु वह व्यय द्रव्यकी अबस्थाका व्यय है इसकोही " प्रध्वंसाभावे " कहते हैं सो परिणामी यह भाव अवयही होना चाहिये । द्रव्यका धौव्यस्वरूप है सो कथंचित् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे है केवल द्रव्यकाही धध्य नहीं है. किन्तु उत्पाद और व्ययकी तरह यह धौव्यभी एक अंश है सर्वाश नहीं है पूर्वाचार्यीने जो " तद्भावाव्ययंत्रौव्यम् " या धीयका लक्षण कहा है उसकाभी स्पष्टार्थ यही है कि, जो परिणाम पहिये है वही परिणाम पीछे है जैसे पुण्पका गन्ध परिणाम है और वह गन्ध गुणभी परिणामी है अपरिणामी नहीं है परन्तु ऐसा नहीं है कि, पहिले पुष्पगन्धरहित था और पीछे गन्धवान् हुआ जी परिणाम पछि था यही पीछे है इसीका नाम धीव्य है। इनमेंसे व्यय और उत्पाद यह दोनों अनित्यताके कारण हैं और धांव्य नित्यनाका कारण है। यहां कोई ऐसा समझे कि द्रव्यमें सत्व अथवा कोईगुण सर्वथा नित्य है और व्यय और उत्पाद ए दोनों उससे भिन्न परणतिमात्र है ऐसा नहीं है। क्योंकि, ऐसा होनेसे सब विरुद्ध होजाता है । प्रदेशभेद होनेसे न गुणकी सिद्धि होती है न द्रव्यकी
(1) जिनमें चार अभाव माने है. १ प्रागभाव. २ प्रध्वंसाभाव : अन्योन्याभाव, और ४ अन्ताभाव दृष्यको वर्तमानसमयसम्बन्धी पर्यायका वर्तमानसमप पहिले जो अभाव है उसको प्रागभाव कहते हैं। तथा उसहीका वर्त्तमानसमय पीछे जो अभाव है उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं । द्रव्यकी एक पर्यायके जातीय अन्यपर्याय अभावको अन्योन्याभाव कहते हैं और उसहीके विजय अभावको अत्यंताभाव कहते हैं जैसे घटोत्पत्तिसे पहिले घट से पीछे घटकामध्यंसामाप है घटकापटमें अन्योऽन्याभाव हैं और घटकाजी में अत्यंताभाव है ।