________________
[६१] अत्र " गुणपर्ययवद्दव्यं" और " सद्र्व्य लक्षणं" इन दोनों लक्षणोंमें एकता दिखाते हैं,-सत् एक गुण है, उस सत्के उत्पाद, व्यय, और धौन्य ये तीन अंश हैं, जिसप्रकार वस्तु स्वतःसिद्ध है उसहीप्रकार स्वतःपरिणामीभी है । भेदविकल्पनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनवकी अपेक्षास जो सत् है सोही द्रव्य है, इसकारण द्रव्यही उत्पादव्ययशव्यस्वरूप है और उत्पादव्ययधोव्यत्वरूप द्रव्य, परिणामकेविना होनहीं सक्ता, यदि विनापरिणामकेभी उत्पादव्यय मानाग तो असत्के उत्पाद और मत्के विनाशका प्रसंग आवेगा । इसकारण द्रव्य किसी भारसे उत्पन्न होता है, किसी भावस विनाशको प्राप्त होता है, ये उत्पादव्यय वस्तुयनन नहीं होत, जैसे मृत्तिका घटस्वरूपसे उत्पन्न होती है। पिण्डस्वरूपसे विनाशको प्राप्त होती है, मृत्तिकास्वरूपसे उत्पादव्यय नहीं है। यदि द्रव्यमै उत्पादव्ययस्य परिणाम नहीं मानोग तो परलोक नया कार्यकारणभावक अभावका प्रसंग आवेगा और यदि परिणामीको • नहीं मानांग तो वस्तु परिणाममात्र क्षणिक ठहरंगी, तो प्रत्यभिज्ञान (यह वही है जो पहले था) के अभावका प्रसंग आवंगा, इससे सिद्ध हुआ कि, द्रव्य कथंचित नित्यानित्यात्मक है, नित्यताकी और गुणी परस्पर व्याक्ति है इसलिये “ द्रव्यगुणवान् है" ऐसा कहनेस "न्य धौन्यवान् है . ऐसा सिद्ध होता है इसहीप्रकार अनित्यतायुक्तपर्यायोंकी उत्पादव्ययके साथ व्याप्ति है इसलिये “ द्रव्यपर्यायवान् है " ऐसा कहनेसे " द्रव्य उत्पादव्यययुक्त है " ऐसा सिद्ध होता है। उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य इन तीनोंको एक आलापसे सद् कहते हैं इसलिये " गुणपर्ययवद्व्यं " कहनेसे “ सद्व्यलक्षणं" ऐसा सिद्ध हुआ :(शंका) यदि ऐसा है तो तीन लक्षण कहनेका क्या प्रयोजन ? तीनामसे कोई एक लक्षण कहना वस था। (समाधान)