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[३९] द्वितीय अधिकार ।
(द्रव्यसामान्यनिरूपण ।) द्रव्यका सामान्य लक्षण पूर्वाचार्योंने इसप्रकार किया है। गाथा-दवदि दविस्सदिदविदं सम्भावे विहावपज्जाए।
तं णह जीवो पोग्गल धम्माधम्मं च कालं च ॥१॥ तिकाले जं सत्तं वदि उप्पादवयधुवत्तेहिं ।
गुणपज्जायसहावं अणादिसिद्धं खुतं हवे दव्वं ॥२॥ १ अर्थात् जो स्वभाव अथवा विभाव पर्यायरूप परिणमें है, परिणमेगा, और परिणम्या सो आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म,
और काल भेदरूप द्रव्य है । अथवा २ जो तीन कालमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्वरूपसत्करिसाहत होवे उसे द्रव्य कहते हैं. तथा ३ जो गुणपर्यायसहित अनादि सिद्ध होवे उसे द्रव्य कहते हैं । इस प्रकार द्रव्यके तीन लक्षण कहे हैं. उनमेंसे पहला लक्षण द्रव्य शब्दकी व्युत्पत्तिकी मुख्यता लेकर कहा है. इस लक्षणमें स्वभावपर्याय और विभावपर्याय ये दो पद आये हैं, उनको स्पष्ट करनेके लिये प्रथमही पर्यायसामान्यका लक्षण कहते हैं । ___द्रव्यमें अंशकल्पनाको पर्याय कहते हैं, उस अंशकल्पनाके दो भेद कहे हैं-एक देशांशकल्पना, दूसरी गुणांशकल्पना ।
देशांशकल्पनाको द्रव्यपर्याय कहते हैं. यदि कोई यहां ऐसी शंका करै कि, जब गुणोंका समुदाय है सोही द्रव्य है, गुणोंसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, इसलिये द्रव्यपर्यायभी कोई पदार्थ नहीं हो सकता । ( समाधान ) यद्यपिं गुणोंसे भिन्न द्रव्य कोई पदार्थ