Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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होकर वन में चले गये। तब ब्रह्मा ने दूसरे सात पुत्र उत्पन्न किये । और उन्होंने प्रवृत्ति का श्राश्रय लेकर प्रजात्रों को उत्पन्न किया ।
निवृत्तिमार्गीय श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय महाबीर और बुद्ध के समय में थे और उनसे पूर्व भी विद्यमान थे एवं उसके बाद भी चलते रहे । अशोक ने इसी आधार पर श्रमण ब्राह्मणों का उल्लेख किया है । उसका अभिप्राय ब्राह्मण और श्रमणोंकी दो पृथक परम्पराओं के अस्तित्व से ही था । पतञ्जलि ने पाणिनि के 'एसा रोधः शाश्वतिकः ' सूत्रपर ‘श्रमण-ब्राह्मणम्' उदाहरण देते हुए सूचित किया है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का पृथक-पृथक अस्तित्व लगभग शाश्वत काल से था । जैसा हम देख चुके हैं ऋग्वेद से भी यह ज्ञापित होता है ।
श्रमण भिक्षु संस्था का जैन, ब्राह्मण और बौद्ध सामग्री के आधारपर पूरा और तुलनात्मक अध्ययन भी नहीं हुआ है। उससे विदित होगा कि गोत्रतिक, श्वात्रतिक, दिशात्रतिक श्रादि सैकड़ों प्रकार के श्रमणमार्गी आचार्य थे। उन्हीं में से एक निर्ग्रन्थ महाबीर हुए और दूसरे बुद्ध । औरों की परम्परा लगभग नामशेष हो गई या ऐतिहासिक काल में विशेष रूप से परिवर्तित हो गई । कपिल और जैगीषव्य श्रमण या निवृत्तिमागाँ आदर्शों के मानने वाले थे किन्तु उनका केवल दर्शन बचा है सम्प्रदाय नहीं । ज्ञात होता है कि बाद के शैव माहेश्वर सम्प्रदाय में उनका अन्तर्भाव हो गया और उनके दार्शनिक सिद्धान्त को भी, जो मूल में अनीश्वरवादी था, सेश्वर बनाकर एक और पाशुपत शैवों ने दूसरी चोर भागवतों ने अपना लिया । इस विषय में पुराणों में पर्याप्त सामग्री है |
इन पुराणों से हमारा तात्पर्य यह बतलाना है कि भारतीय संस्कृति में निवृत्तिधर्मी श्रमण परम्परा और प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थ परम्परा दोनों दो बटी हुई रस्सियों की तरह एक साथ विद्यमान रही हैं और दोनों
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