Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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( ११ ) के समय में भी प्रचलित थीं। प्रवृत्ति परम्परा को देव परम्परा कहते थे । यज्ञविधि और चार अाश्रम उसी के अंग थे । निवृत्ति परम्परा को मुनि परम्परा कहा जाता था। वानप्रस्थ धर्म और श्रमण विधि उसकी विशेषताएँ थीं। ऋग्वेदके दशममण्डलके १३५वें सूक्तके कर्ता सात वातरशना मुनि थे। यथा-१ जूति, • वातजूति, ३ विप्रजूति, ४ वृषाणक ५ करिक्रत, ६ एतशः ७ ऋष्यशृङ्गः एते वातरशना मुनयः।' वातरशना का वही अर्थ है जो दिगम्बर का है। वायु जिनकी मेखला है अथवा दिशाएँ जिनका वस्त्र है। दोनों शब्द एक ही भाव के सूचक हैं । इस सूक्त में वातरशना मुनियों को मलधारी सूचित किया गया है । ज्ञात होता है कि भस्म आदि मलने से उनकी जटाएँ पिशङ्ग या कपिल वर्ण की दिखाई पड़ती थीं। जैसे आज कल के धूनि रमाने वाले साधुओं की होती हैं___'मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः।
-ऋग्वेद १०।१३।२। इसी सूक्त के पाँचवें मन्त्र में स्पष्ट कहा है कि एक-एक देव के साथ एक-एक मुनि उसका सखा है
मुनिर्देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः-१०।१३५॥५॥ इन उल्लेखों का ऐतिहासिक महत्त्व बहुत कुछ है। देव परम्परा के तुल्य ही मुनि परम्परा की लोकप्रियता भी इससे सूचित होती है । महाभारत में तो स्पष्ट उल्लेख है कि प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के लिए सनक' आदि सात पुत्रों को उत्पन्न किया। किन्तु वे निवृत्तिमार्गी
१-'सनः सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दनः ।
सनत्कुमारः कपिलः सप्तमश्च सनातनः।।७२॥ सप्त ते मानसाः प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणः सुताः। स्वयमागतविज्ञाना निवृति धर्ममास्थिताः ॥७३।।
-महाभारत, शान्तिपर्व ।
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