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२४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
के जो दानपत्र मिले हैं उनमें शिव की स्तुति की है तथा उन पर शिव एवं शिवलिंग आदि के चिह्न बने हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि वह जैन नहीं था । इसके सम्बन्ध में नाथूराम प्रेमी का कहना है कि राज्य का कार्य कुल परम्परा के अनुसार चलता है अतः संभव है कि पहले की परम्परा के ही अनुसार अमोघवर्ष के भी दानपत्र लिखे गये हों तथा उन पर उनके वंश परम्परा के चिह्न अंकित किये गये हैं । केवल उनके जैन हो जाने से पूरा राजतंत्र जैन-धर्मानुयायी नहीं हो सकता । इस सन्दर्भ में कलिंग नरेश खारवेल का उदाहरण दिया जा सकता है जो स्वयं जैन धर्मानुयायी था किन्तु उसका राज्याभिषेक वैदिक विधि से हुआ था । सम्राट् हर्ष के बौद्ध होने पर भी उनके दानशासनों में उसे परममाहेश्वर तथा इसी प्रकार कुमारपाल के जैन होने पर उसे परममाहेश्वर लिखा जाता रहा है । १
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अमोघवर्ष के उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय के राज्यकाल में गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण को पूरा किया। साथ ही इन्द्रनन्दि ने ज्वालामालिनीकल्प, सोमदेव ने यशस्तिलक - चम्पू नामक काव्य तथा पुष्पदन्त अपभ्रंश रचनाएँ प्रस्तुत कीं । २ राजदरबारों में जैनाचार्यों और विद्वानों के त्यागमय जीवन और विद्योपासना की बड़ी प्रतिष्ठा थी । राजवंशी लोग भी उनके भक्त तथा उपासक होने में अपना कल्याण समझते थे । इस राजकीय संरक्षण के फलस्वरूप ही जैनाचार्यों द्वारा निरन्तर जैनकाव्य एवं धर्मपरक साहित्य की रचना होती रही जिनमें राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष तथा उसके उत्तराधिकारियों के संरक्षण में महापुराण एवं कुमारपाल चौलुक्य के संरक्षण में हेमचन्द्र कृत त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र सर्वप्रमुख है | 3
(ख) धार्मिक :
सातवीं शती ई० के बाद हिन्दू, बौद्ध तथा जैन तीनों धर्मों में तान्त्रिक प्रवृत्तियों ने किसी न किसी रूप में प्रवेश किया । किन्तु बौद्ध और हिन्दू धर्मों की तुलना में जैनधर्म में यह प्रवृत्ति कम और मुख्यतः मन्त्रवाद के रूप में देखी जा सकती है । जैनधर्मं तान्त्रिक पूजाविधि, मांस, मदिरा तथा स्त्रियों से मुक्त रहा । जैन आचार्यों ने तान्त्रिक विद्या के घिनौने आचरणों को पूर्णतः अस्वीकार कर तन्त्र के केवल योग एवं साधना पक्ष को ही महत्त्व दिया |४
आगम ग्रन्थों में भूतों, डाकनियों एवं पिशाचों के प्रचुर उल्लेख हैं ।
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