________________
यक्ष-यक्षी एवं विद्यादेवी : १४९ बहुपुत्रिका को मणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षेन्द्रों की चार प्रमुख रानियों में एक बताया गया है ।२४ यू० पी० शाह के अनुसार जैन देवकुल के प्राचीनतम यक्ष-यक्षी, सर्वानुभूति ( या मातंग या गोमेध ) और अंबिका की कल्पना निश्चित रूप से मणिभद्र-पूर्णभद्र यक्ष और बहुपुत्रिका यक्षी के पूजन की प्राचीन परम्परा पर आधारित है ।२५
कल्पसूत्र एवं पउमचरिय जैसे प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में २४ यक्षयक्षियों में से किसी का उल्लेख नहीं मिलता। छठी-सातवीं शती ई० के टीका, नियुक्ति एवं चणि ग्रन्थों में भी इनका कोई उल्लेख नहीं है ।२६
ल० आठवीं-नवीं शती ई० में २४ यक्ष-यक्षी युगलों की सूची नियत हुयी । प्रारम्भिक सूचियाँ कहावली ( श्वेताम्बर ),२७ तिलोयपण्णत्ति२८ (दिगम्बर ) एवं प्रवचनसारोद्धार२९ ( श्वेताम्बर ) में मिलती हैं। कृष्ण वर्ण वाले यक्षों की ध्वजा पर वट वृक्ष अंकित होता था। सुन्दर अंगों व सौम्यरूप वाले किरीट मुकुट व अन्य आभूषण धारण करते थे ।३० दोनों ही परम्पराओं में पूर्णभद्र व मणिभद्र को इनका यक्षेन्द्र माना गया है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार प्रत्येक इन्द्र की तारा, बहुपुत्रा, कुण्डा एवं उत्तमा नामक चार रानियाँ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इन्हें पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा और तारका नाम से जाना जाता है । ३१ ।। ___ ल० छठी शती ई० में जिनों के साथ यक्ष-यक्षी युगलों ( शासनदेवताओं) को सम्बद्ध करने की धारणा का विकास हुआ ।३२ यक्ष-यक्षी युगल से युक्त प्राचीनतम जिन मूर्ति छठी शती ई० की है।33 ल० आठवींनवीं शती ई० तक २४ जिनों के स्वतंत्र यक्ष-यक्षी युगलों की सूची निर्धारित हो गयी।४ २४ यक्ष-यक्षी युगलों की स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएँ ११वीं-१२वीं शती ई० में निर्धारित हईं जिनका उल्लेख निर्वाणकलिका,त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह में मिलता है। इन ग्रन्थों में उल्लखित यक्ष-यक्षी के नामों एवं प्रारम्भिक सूची के नामों में कई स्थल पर भिन्नता है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर व श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इनके नामों व लाक्षणिक विशेषताओं में पर्याप्त अन्तर मिलता है।३५
सर्वप्रथम निर्वाणकलिका (११वीं-१२वीं शती ई० ) में २४ यक्ष-यक्षी युगलों की स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएँ विवेचित हुईं। इसके अतिरिक्त त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र ( श्वेताम्बर, १२वीं शती ई० ), प्रवचनसारोद्धार पर सिद्धसेनसूरि की टीका ( श्वेताम्बर ) एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org