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१५२ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
स्थानकमुद्रा में खड़ा भी दिखलाया गया है । ६ठी शती ई० से ही यक्षयक्षियों की स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी मिलने लगती हैं ।
यक्ष एवं यक्षी के उत्कीर्णन की दृष्टि से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग स्थिति रही है जिसका संक्षेप में विश्लेषण निम्नवत् है । ४५ गुजरात - राजस्थान :
इस क्षेत्र में श्वेताम्बर स्थलों पर महाविद्याओं की लोकप्रियता के कारण यक्ष एवं यक्षियों की मूर्तियाँ तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम बनीं । सर्वाधिक उदाहरणों में यक्षी अंबिका हैं। अंबिका के अतिरिक्त चक्रेश्वरी, पद्मावती (कुम्भारिया, विमलवसही ) एवं सिद्धायिका की भी मूर्तियाँ मिली हैं । यक्षों में केवल वरुण, सर्वानुभूति, गोमुख एवं पार्श्व की ही मूर्तियाँ मिली हैं । इस क्षेत्र में सर्वानुभूति एवं अंबिका सर्वाधिक लोकप्रिय यक्ष- यक्षी युगल थे जिन्हें सभी जिनों के साथ निरूपित किया गया । केवल कुछ ही उदाहरणों में ऋषभ ( गोमुख - चक्रेश्वरी ), पार्श्व ( पार्श्व या धरणेन्द्र - पद्मावती) एवं महावीर ( मातंग - सिद्धायिका ) के साथ पारम्परिक व स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं । दिगम्बर जिन मूर्तियों में स्वतन्त्र लक्षणों वाले पारम्परिक यक्ष और यक्षियों के चित्रण अधिक लोकप्रिय थे । ४६
उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश :
इस क्षेत्र में ल० ७वीं-८वीं शती ई० में जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षियों का अंकन प्रारम्भ हुआ । इस क्षेत्र की १०वीं शती से १२वीं शती ई० के मध्य की जिन मूर्तियों में अधिकांशतः पारम्परिक या स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । ऋषभ, नेमि एवं पार्श्व के साथ पारम्परिक यक्ष-यक्षी एवं सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, शान्ति एवं महावीर के साथ कभी-कभी स्वतन्त्र लक्षणों वाले किन्तु अपारम्परिक यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं । अन्य जिनों के साथ अधिकांशतः सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी के हाथों में अभय ( या वरद )मुद्रा और कलश ( या फल या पुष्प ) प्रदर्शित हैं । इस क्षेत्र में अंबिका की सर्वाधिक स्वतन्त्र मूर्तियाँ मिलती हैं । इनके अतिरिक्त रोहिणी, ४७ पद्मावती ४ एवं सिद्धायिका ४९ की कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । यक्षों में केवल सर्वानुभूति एवं धरणेन्द्र की ही कुछ स्वतन्त्र मूर्तियाँ मिली हैं । १°०
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