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२१२ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
वस्त्र और आभूषण आदि का सौन्दर्य वृद्धि के लिये प्राचीनकाल से ही प्रयोग होता रहा है किन्तु इसके महत्त्व के कुछ अन्य कारण भी रहे हैं। इनमें मांगलिक, रोग निवारक एवं स्वास्थ्यवर्धक तथा भाग्योदय में सहायक और बाधाओं को दूर करने की क्षमता वाला होने तथा अनेक चमत्कारिक मोह-मायावी शक्तियों का आधार होने का परम्परागत विश्वास भी प्रमुख रहा है।२ एलोरा की गुफा सं० ३३ के मुखमण्डप (पूर्वी ) के एक स्तम्भ पर कामदेव की मूर्ति देखी जा सकती है जिसमें त्रिभंग में खड़े देवता के हाथों में इक्षुधनु एवं पुष्पबाण प्रदर्शित हैं जो तत्कालीन विषय सुख की प्रवृत्ति और भौतिक जगत के विविध वस्त्राभूषणों एवं प्रसाधन आदि के महत्त्व को अभिव्यक्त करते हैं । ज्ञातव्य है कि निवृत्तिमार्गी जैनधर्म में युग की आवश्यकता के अनुरूप लगभग ८वीं शती ई० में ब्राह्मण धर्म और कला परम्परा के अनुरूप नियंत्रित भाव के साथ भौतिक जगत् एवं काम के महत्त्व को भी स्वीकार किया गया। हरिवंशपुराण में एक ऐसे जिन मन्दिर का सन्दर्भ आया है जिसमें सम्पूर्ण प्रजा के कौतुक के निमित्त कामदेव और रति की मूर्ति बनवायो गयी थी । यह जिन मन्दिर कामदेव मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था (२९.१-५)।
प्रस्तुत अध्याय में महापुराण के साथ-साथ जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों की सामग्री के आधार पर तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । तुलनात्मक विवेचन के लिये आवश्यकतानुसार पुरातात्त्विक साक्ष्यों का भी उपयोग किया गया है। सांस्कृतिक जीवन के अध्ययन की दृष्टि से मुख्यतः आभूषण, वस्त्र, प्रसाधन व केशविन्यास तथा नृत्य-संगीत आदि का विवेचन किया गया है । एलोरा की जैन गुफाओं में ऐन्द्रिकता का भाव व्यक्त करने वाले आलिंगनबद्ध और चुम्बन की मुद्रा में कुछ स्त्री-पुरुष युगलों की आकृतियाँ भी बनी हैं। साथ ही अम्बिका एवं पद्मावती यक्षी तथा बाहुबली को मूर्तियों के साथ दो विद्याधरियों की आकृतियों में भी आकर्षक देहयष्टि तथा अलंकृत मुकुट, विविध शैली के हार, केयूर आदि आभूषण तथा वस्त्र सज्जा की विविधता तत्कालीन वस्त्राभूषणों के सुन्दर उदाहरण हैं। आभूषण :
आभूषण शृंगार के आवश्यक उपकरण हैं। शृंगार की प्रबल भावना के कारण ही आभूषणों का निर्माण तथा उसका निरन्तर विकास व परिष्कार हुआ। मानव की सहज शृंगार-प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति के
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