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सांस्कृतिक जीवन : २१५ अनतूर ( चिकमंगलूर, कर्नाटक ) से प्राप्त ल० १२वीं शती ई० की पद्मावती यक्षी की आकृतियों में स्पष्टतः देखे जा सकते हैं । २१.
(घ) चूड़ामणि २२ – इसका प्रयोग देवों, राजाओं एवं सामंतों द्वारा किया जाता था। चूड़ामणि के मध्य में मणि का होना आवश्यक था । आदिपुराण में चूड़ामणि के साथ चूड़ारत्न शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । 23 वस्तुतः दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं ।
(ङ) मौलि २४ - वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार केशों के ऊपर के गोल स्वर्णपट्ट मौलि हैं । २५ पद्मपुराण के समान आदिपुराण में भी रत्नमय, स्वर्णसूत्र में परिवेष्ठित एवं मालाओं से युक्त मौलि का उल्लेख मिलता है । यद्यपि मौलि का स्थान किरीट के बाद था किन्तु मस्तक के आभूषणों में यह महत्त्वपूर्ण था ।
सीमन्तकमणि २६ – स्त्रियाँ सीमन्तकमणि अपने सीमन्त में धारण करती थीं । आज माँगटीका के रूप में इसका प्रचलन देखा जा सकता है जिसे विवाहिता स्त्रियों के लिए सौभाग्य का सूचक माना गया है ।
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(छ) अवतंस - युवराजों में अवतंस धारण करने का प्रचलन था । अन्य मुकुटों से यह अधिक सुन्दर होता था । मुख्यतः पुष्पों से ही इसका निर्माण किया जाता था । इसका आकार किरीट और मुकुट से छोटा होता था ।
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(ज) कुन्तली २ -- किरीट के साथ ही कुन्तलो का भी उल्लेख मिलता हैं । सम्भवतः आकार में कुन्तली किरीट से बड़ा होता था । इसे कलंगी के रूप में केश में लगाने की प्रथा थी । केवल उच्चवर्ग के स्त्री-पुरुषों में ही इसका प्रचलन था ।
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(झ) पट्ट ? १ -- बृहत्संहिता में पट्ट का स्वर्णनिर्मित होना आवश्यक माना गया है तथा इसके पाँच प्रकार बताये गये हैं-- राजपट्ट (तीन शिखाएँ); महिषीपट्ट ( तीन शिखाएँ), युवराजपट्ट ( तीन शिखाएँ), सेनापतिपट्ट ( एक शिखा ) तथा प्रसादपट्ट ( शिखाविहीन ) 30 । सामान्यतया पट्ट उष्णीष के ऊपर बाँधा जाता था ।
कर्णाभूषण :
कानों में विभिन्न प्रकार के आभूषण धारण करने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है । समय के अनुसार केवल इनके उपादानों में अन्तर रहा है । कर्णाभूषणों के निर्माण के लिये सामान्यतः
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