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२१८: जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन मणिमध्या का उल्लेख कालिदास के रधुवंश और मेघदूत में भी हुआ है।५४
शुद्धा यष्टि--मणिरहित यष्टि को शुद्धायष्टि के नाम से अभिहित किया गया है ।५५
(ख) हार५६--आदिपुराण में यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार कहा गया है । हार में शुद्ध एवं कान्तिमान रत्नों का प्रयोग किया जाता था। मुक्ता निर्मित माला मुक्ताहार कहलाती थी। आदिपुराण में मुक्ताहार ( मोतियों की माला), एकावला हार ( एक लड़ी का हार ) तथा नक्षत्र-माला ( सत्ताइस मोतियों का हार) का उल्लेख आया है ।५७ केवल साहित्य हो नहीं मूर्त उदाहरणों से भी इनके प्रचलन की पुष्टि होती है। देवगढ़ व एलोरा से प्राप्त १०वीं शती ई० की अंबिका यक्षी एवं सर्वानुभूति यक्ष की मूर्तियों में मुक्ताहार तथा एकावली का अंकन मिलता है। हार बनाने के लिये धागे में मोतियों तथा रत्नों को गुंथित किया जाता था । लड़ियों की संख्या के घटने-बढ़ने के आधार पर हार के ११ भेदों का उल्लेख भी आदिपुराण में मिलता है। ज्ञातव्य है कि प्रारम्भिकतम हारों का सन्दर्भ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्राप्त होता है।५९ किन्तु आदिपुराण एवं अर्थशास्त्र में वणित हारों की लड़ियों की संख्या में कहीं-कहीं अन्तर भी मिलता है । आदिपुराण में वर्णित हार के निम्नलिखित प्रकार हैं
(१) इन्द्रच्छन्द हार : १००८ लड़ियों वाले हार को इन्द्रच्छन्द हार कहा गया है । इस हार को अन्य हारों की तुलना में श्रेष्ठ माना गया है तथा इसे इन्द्र, जिनेन्द्र एवं चक्रवर्ती सम्राटों द्वारा धारण करने योग्य बताया गया है।६० .. (२) विजयच्छन्द हार : ५०४ लाड़यों वाले हार को विजयच्छन्द हार कहा गया है। इसे अर्धचक्रवर्ती पुरुष धारण करते थे ।११
(३) हार : इसमें १०८ लड़ियाँ होतो थीं।६२
(४) देवच्छन्द हार : मातियों के ८१ लड़ियों वाले हार को देवच्छन्द कहा गया है।६३
(५) अर्धहार ः ६४ लड़ियों वाले हार को अर्धहार की संज्ञा प्रदान की गयी।६४
(६) रश्मिकलाप हार : इसमें मोतियों की ५४ लड़ियाँ होती थीं। इसकी मोतियों से अपूर्व रश्मि निस्सरित होने का उल्लेख है।५ अतः यह नाम सार्थक प्रतीत होता है ।
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