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सांस्कृतिक जीवन : २२९ का उल्लेख है । १७ आदिपुराण तथा कुछ जैनेतर ग्रन्थों के आधार पर केश विन्यास की निम्नलिखित शैलियाँ मिलती हैं
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( क ) अलकजाल या अलकावली : आदिपुराण में सालकानन शब्द का उल्लेख है जिसकी व्युत्पत्ति ( स + अलक + आनन ) से होती है अर्थात चूर्ण - कुन्तल ( सुगन्धित चूर्ण लगाने योग्य सम्मुख के केश ) । स्त्रियाँ अलकावली बनाने के लिये कुमकुम, कर्पूर इत्यादि के चूर्ण का प्रयोग करती थीं । इनके आलेप से केश घुंघराले हो जाते थे । उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि उस समय घुंघराले छल्लेदार केश विशेष लोकप्रिय थे । कालिदास ने भी अलकों के वास्तविक स्वरूप और अलकों को
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के लिये चूर्ण के प्रयोग का उल्लेख किया है । १८९ वासुदेवशरण अग्रवाल ने घुंघराले केशों की रचना के कई प्रकार बताये हैं । राजघाट से प्राप्त मृण्मूर्तियों में अलकजाल के अनेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं । कुषाणकाल से निरन्तर मध्ययुग तक सभी क्षेत्रों की तीर्थंकर मूर्तियों की केश रचना छोटे-छोटे गुच्छकों के रूप में दिखलायी गयी है ।
( ख ) धम्मिल विन्यास : आदिपुराण में धम्मिल शैली के केश - विन्यास का उल्लेख है १९१ जिससे पता चलता है कि नीचे की ओर कुछ लटके हुए कोमल और कुटिल केशपाश को धम्मिल कहा गया है । गुप्तकाल से ही इस शैली की केश रचना का प्रारंभ हो जाता है जिसका स्पष्ट उदाहरण अहिच्छत्रा से प्राप्त पावंती मस्तक है । अमरकोश में मौलिबद्ध केशरचना को धम्मिल्ल ( धम्मिल ) कहा गया है । १९३ राजघाट की मृण्मूर्तियों में धम्मिल शैली के केश विन्यास के उदाहरण द्रष्टव्य हैं । १९४
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( ग ) कबरी " १९५ : कबरी प्रकार के केश विन्यास में पुष्पमालाओं, वन की लताओं तथा चमरी गाय के बालों से भी केशपाशों को बाँधने का उल्लेख मिलता है ।
(घ) वेणी: अधिकांश स्त्रियाँ अपने लम्बे व काले केशों को वेणी के रूप में बांधती थीं और वेणी को विभिन्न पुष्पों की लाताओं से अलंकृत करती थीं । १९६ स्त्रियों की वेणी का सुन्दर उदाहरण मल्लिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति में देखा जा सकता है । १७ ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा मल्लिनाथ को नारी तीर्थंकर बताया गया है ।
(ङ) जूड़ा १९८ : स्त्रियाँ अपने केशों को वेणी के साथ-साथ जूड़े में भी संवारती थीं। १९९ इस प्रकार की केश रचना में केशों का जूड़ा बनाकर
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