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२६० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन श्वेताम्बर परम्परा के ६३ शलाकापुरुषों से सम्बन्धित चरितग्रन्थों में यक्ष-यक्षी युगलों के प्रतिमानिरूपण से सम्बन्धित विवरण मिलते हैं जिनमें हेमचन्द्रकृत-त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र सर्वप्रमख है। ल० आठवीं शती ई० के पूर्ववर्ती दिगम्बर ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति ( यतिवृषभकृत ) में २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी युगलों की सूची का मिलना इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। तिलोयपण्णत्ति की सूची तथा मथुरा, राजगिर, एलोरा, खजुराहो एवं देवगढ़ जैसे नवीं-१०वीं शती ई० के दिगम्बर पुरास्थलों पर यक्षियों की स्वतंत्र एवं जिन-संयुक्त मूर्तियों के उत्कीर्णन की परंपरा के बाद भी महापुराण में यक्ष-यक्षी का कोई उल्लेख न किया जाना सम्भवतः महापुराण के कर्ता जिनसेन एवं गुणभद्र जैसे आचार्यों के व्यक्तिगत दृष्टि को अभिव्यक्त करता है। यह सर्वथा निर्विवाद है कि वीतरागी जिनों की उपासना से किसी भौतिक समृद्धि की प्राप्ति संभव नहीं थी जबकि सामान्य उपासक वर्ग ऐसी भौतिक उपलब्धियों का आकांक्षी होता है। सामान्य उपासक वर्गों की अपेक्षा को पूर्ण करने के उद्देश्य से ही प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष और एक यक्षी को शासनदेवता के रूप में सम्बद्ध किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन महापुराण के कर्ता इस प्रकार के मध्यममार्गी तुष्टीकरण की नीति के समर्थक नहीं थे । अतः जैन महापुराण में यक्ष-यक्षी का नाम अनुल्लेख रचनाकारों के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का सूचक माना जा सकता है। __ एलोरा की जैन गुफाओं में जैन देवकुल की तीन प्रमुख यक्षियों चक्रेश्वरी, अंबिका एवं पद्मावतो तथा कुबेर यक्ष की स्वतंत्र एवं जिनसंयुक्त मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । चक्रेश्वरी की चार, आठ और बारह हाथों वाली कुल चार मूर्तियाँ गुफा सं० ३० और ३२ में उकेरी हैं। इनमें परम्परानुरूप गरुडवाहना चक्रेश्वरी के दो या अधिक हाथों में चक्र तथा शेष में शंख, पद्म, गदा और वज्र जैसे आयुध हैं। सर्वाधिक मूर्तियाँ अंबिका की बनीं जिनमें अंबिका सर्वदा द्विभुजा एवं दिगम्बर परम्परा के अनुरूप सिंहवाहना तथा एक हाथ में आम्रलुम्बि व दूसरे में पुत्र के साथ निरूपित हैं। पार्श्वनाथ की पद्मावती यक्षी की केवल एक स्वतंत्र मूर्ति मिली है जो गुफा सं० ३२ में है। कुक्कुट-सर्प वाहन वाली अष्टभुजा यक्षी के अवशिष्ट करों में पद्म, मूसल, खड्ग, खेटक व धनुष स्पष्ट हैं । अंबिका के समान ही एलोरा में कुबेर या सर्वानुभूति की भी सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं जिनमें श्वेताम्बर स्थलों की भाँति गजारूढ़ यक्ष को द्विभुज एवं पात्र ( या फल ) एवं धन के थैले से युक्त दिखाया गया है।
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