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सांस्कृतिक जीवन : २२३ ● एक अन्य पादाभूषण भी द्रष्टव्य है जो वर्तमान में पहने जाने वाले कड़े अथवा छड़े के सदृश प्रतीत होता है । ११६
( ख ) गोमुखमणि : यह गोमुख के आकार के चमकीले मणियों से युक्त शब्दायमान पादाभूषण था । इसी कारण प्रस्तुत मणियुक्त आभूषण को गोमुखमणि के नाम से अभिहित किया गया । ११
वस्त्र :
वैयक्तिक शृंगार में वस्त्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । सम्भवतः शीत ताप निवारण तथा लज्जा आच्छादन के उद्देश्य से वस्त्र का आविष्कार हुआ होगा किन्तु क्रमशः शृंगार की दृष्टि से भी इसका महत्व बढ़ता गया । आरम्भिक काल में मानव वस्त्र के रूप में पशुचर्म, वृक्षों की छाल व पत्तों का प्रयोग करता था । वस्त्र के विकास के इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आगे चलकर आवश्यकता एवं उपयोगिता की अपेक्षा शृंगार की दृष्टि से इनका अधिक महत्व हो गया । इसी कारण विविध रंगों, नमूनों और अलंकारों से सुसज्जित वस्त्रों का विकास हुआ और उन्हें विभिन्न आकार-प्रकार देकर धारण किया जाने लगा। सभी युग में अपनी सामर्थ्य के अनुसार स्त्री, पुरुष व बालक इसका उपयोग करके अपने को आकर्षित बनाते रहे हैं ।
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जैन पुराणों में सामान्यतः कार्पासिक ( सूती वस्त्र ), और्ण ( ऊनी वस्त्र ), कीटज ( सिल्क ), रेशम, चर्मं के वस्त्र, वल्कल ( वृक्षों की छालों के वस्त्र ) तथा पत्र ( पत्तों के वस्त्र ) वस्त्रों के उल्लेख मिलते हैं । प्रारम्भ में जैन साधु व साध्वी केवल सामाजिक नियमों का पालन करने के लिये मोटे एवं रुक्ष वस्त्र धारण करते थे । परन्तु धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के प्रभाव से तप प्रधान जैन धर्मं भी अछूता नहीं रह सका । जैन साधुओं के लिए शरीर स्पर्शी ऊनी वस्त्र पहनना वर्जित था किन्तु वे ऊनी चादरों का प्रयोग कर सकते थे । महावीर द्वारा देवदूष्य ( या दूस) तथा जैन भिक्षुओं द्वारा चीवर मुहपट्टिय, पोत्तिय, धातुरत्तवत्थ ( लाल रंग का वस्त्र ), धातुरवत्थ, वागलवत्थ तथा चेल वस्त्र भी धारण करने का उल्लेख मिलता है । ११९ जैन साधुओं द्वारा वल्कल, कुश एवं पत्रों के वस्त्र पहनने के भी उल्लेख हैं । १२० जैन ग्रन्थों में उच्चवर्ग की स्त्रियों द्वारा जिन वस्त्रो के पहनने का उल्लेख है उनमें सादी, चीणंशुयवत्थ, खोम, वाड्य, पट्ट, दुगुल्ल तथा प्रवर नीचे के लम्बे वस्त्र होते थे तथा ऊपर पहनने का वस्त्र सन्धिबन्धन कहलाता
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