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यक्ष-यक्षी एवं विद्यादेवी : १६१ शती ई० ) एवं लूणवसही ( रंगमण्डप, १३३२-४० ई० ) से प्राप्त होते हैं (चित्र ३२-३४ )।५ दिगम्बर स्थलों पर महाविद्याओं के मूर्त उदाहरणों का न मिलना सर्वथा आश्चर्यजनक है। दिगम्बर स्थलों पर महाविद्याओं की मूर्तियों के अंकन की परम्परा न होने के कारण ही एलोरा की जैन गुफाओं में भी महाविद्या मूर्ति का कोई उदाहरण नहीं मिला है। दिगम्बर स्थलों पर महाविद्याओं के स्थान पर यक्षियों का अंकन लोकप्रिय था । सम्भव है तान्त्रिक देवियाँ होने के कारण ही इन्हें एलोरा एवं अन्य दिगम्बर स्थलों पर आमूर्तित नहीं किया गया ।
पाद-टिप्पणी १. यू० पो० शाह, जैन रुपमण्डन, पृ० २०५-२०६ । २. वहीं, पृ० २०५। ३. कुमारस्वामी, यक्षज, भाग-१, दिल्ली १९७१ (पु० मु०), पृ० ३६-३७ । ४. मारुतिनन्दन तिवारी, जैन प्रतिमाविज्ञान, पृ० ३४ । ५. कुमारस्वामी, पू० नि०, पृ० ११, २८ । ६. उत्तराध्ययनसूत्र ३.१४-१८ । ७. हरिवंशपुराण ६६.४३-४४; प्रवचनसारोद्धार ( बी० सी० भट्टाचार्य, दि ___ जैन आइकनोग्राफी. लाहौर, १९३९, पृ०९२ )। ८. आचारदिनकर, प्रतिष्ठाकल्प, पृ० १३ ( बी० सी० भट्टाचार्य, पू० नि०,
पृ० ९२-९३)। ९. बी० सी० भट्टाचार्य, पृ० नि०, पृ० ९३ । १०. मारुतिनन्दन तिवारी, पू० नि०, पृ० १५४ । ११. मारुतिनन्दन तिवारी, पू० नि०, पृ० १५५ । १२. हरिवंशपुराण ६६.४५ । १३. आदिपुराण २३.४८; यू० पी० शाह, 'यक्षज वशिप इन अर्ली जैन लिट्रेचर', ___ ज० ओ० ई०, खण्ड-३, अं० १, पृ० ६०-६४ । १४. भगवतीसूत्र ३.७.१६८; कुमारस्वामी, पू० नि०, पृ० १०-११ । १५. तत्त्वार्थसूत्र, सं० सुखलाल संघवी, बनारस १९५२, पृ० ११९ । १६. यू० पी० शाह, पू० नि०, पू० ६२-६३ । १७. आगमग्रन्थों में कहीं भी महावीर द्वारा जिनमूर्ति के पूजन या जिनमंदिर में
विश्राम का उल्लेख नहीं मिलता-यू० पी० शाह, 'बिगिनिंग्स ऑव जैनआइकनोग्राफी', 'सं०पु०प०, अं० ९, पृ० २ ।
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