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१७८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
देवियों के रूप में आता है ।९९ इनका प्रमुख कार्य जिन माता की विभिन्न प्रकार से सेवा करना है । 100 श्वेताम्बर स्थलों पर तीर्थंकरों के जन्म से सम्बन्धित दृश्यों में जिनमाताओं के समीप इन हृद देवियों का सामूहिक अंकन देखा जा सकता है। गंगा व सिन्धु देवी :
ब्राह्मण परम्परा के समान ही जैन देवकुल में भी गंगा एवं सिन्धु का देवियों के रूप में उल्लेख हुआ है। इनका निवास गंगाकूट तथा सिन्धु कूट पर माना गया है। आदिपुराण में गंगादेवी की उत्पत्ति एवं गंगा देवी द्वारा चक्रवर्ती भरत का गंगाजल से अभिषेक करने का उल्लेख आता है ।१०१ हरिवंशपुराण में सिन्धु कूट पर निवास करने वाली सिन्धु देवी द्वारा भरत चक्रवर्ती को पादपीठ से सुशोभित दो उत्तम आसन भेंट करने का उल्लेख है । १०२ पुष्पदन्तकृत महापुराण में गंगादेवी को पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुखवाली, कमलनयनी, कमलों के समान चरणोंवाली, जिनेन्द्र का अभिषेक करनेवाली, सिर में फूल गूंथनेवाली, चंचल मकर ध्वजवाली एवं अपने रूप-यौवन से देवों को आश्चर्य में डाल देनेवाली बताया गया है। पद्म को ही उनका छत्र एवं वस्त्र माना गया है ।१०3 सिन्धु देवी को दिव्य स्वरूपा तथा जलचर ध्वजवाली बताया गया है । १०४ दिक्कुमारी :
जैनधर्म के श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में दिक्कुमारियों का सम्बन्ध तीर्थंकरों के जन्मोत्सव व जातकर्म से बताया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में इनकी संख्या ५६ एवं दिगम्बर में ४४ बतायी गयी है। १०५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में ५६ दिक्कुमारियों का उल्लेख विस्तार के साथ, हाथों में दर्पण, घट, ताड़पत्र का पंखा, चीवर व ज्योति लिये हुए मिलता है । १०६ आदिपुराण,१०७ हरिवंशपुराण १०८ एवं महापुराण (पुष्पदन्तकृत ) जैसे दिगम्बर ग्रन्थों में तीर्थंकरों के जन्म के अवसर पर जिनमाता के पास दिक्कुमारियों के आने का उल्लेख है। कुछ दिक्कुमारियों के नाम हिन्दू देवियों के समान हैं जैसे-सीता, पृथ्वी, एकनांशा तथा इला इत्यादि । १०९ विमलवसही ( देलवाडा ) में कलश तथा चामर लिये हुए नारी आकृतियों की पहचान दिक्कुमारियों के रूप में की गयी है।११०
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