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१९८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन से की जा सकती है । ये सुवर्ण के स्तम्भों के अग्रभाग पर लगे रत्नों के तोरणों से देदीप्यमान होते थे ।६० धुलिशाल के चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त व अपराजित नामक गोपुरद्वार होते थे। ये नाम कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्थापत्य के सन्दर्भ में वणित नामों का स्मरण कराते हैं । वीथियों के मध्य में चार 'मानस्तंभों' का निर्माण किया जाता था जिन पर सुवर्ण व रत्नमयी मूर्तियाँ होती थीं।६१ मानस्तम्भ का मूल भाग हीरे का, मध्यभाग स्फटिक का तथा अग्रभाग वैदूर्यमणि का बना होता था। मानस्तम्भ आकार में गोल चार गोपुरद्वारों तथा ध्वजापताकाओं से युक्त एक कोट से घिरा होता था। इसके चारों ओर सुन्दर वनखण्ड में सोम, यम, वरुण और कुबेर के रमणीक क्रीड़ा नगर होते थे। मानस्तंभ क्रमशः छोटे होते हुए तीन गोलाकार पीठों पर स्थापित होता था। इसके चारों ओर चंवर, घण्टा, किंकिणी, रत्नहार व ध्वजाओं की शोभा होती थी। मानस्तम्भ के शिखर पर चारों ओर अष्टप्रातिहार्यों से युक्त एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमा होती थी। प्रत्येक मानस्तम्भ के चारों दिशाओं में एक-एक वापिका होती थी। ६२ जिस जगती पर मानस्तम्भ होता था वह जगती चार-चार गोपुरद्वारों से युक्त व तीन कोटों से घिरी होती थी। उसके मध्य में एक पीठिका होती थी जिस तक पहुँचने के लिये सूवर्ण की १६ सीढ़ियाँ होती थीं। मनुष्य, देव, मानव आदि सभी उसकी पूजा करते थे।६3 मानस्तम्भों के मूलभाग में जिनेन्द्र की सुवर्णमय प्रतिमाएँ होती थीं।
जगती के मध्य में तीन कटनीदार एक पीठ होता था। उस पीठ के अग्र भाग पर ही मानस्तम्भ प्रतिष्ठित किए जाते थे। इनका मूल भाग बहुत सुन्दर होता था और वे सुवर्ण से बहुत ऊँचे निर्मित किए जाते थे। उनके मस्तक पर तीन छत्र (इन्द्रध्वज) होते थे।६४ मानस्तम्भ के समीपवर्ती भू-भाग में, प्रत्येक दिशा में चार-चार बावड़ियाँ होती थीं। ये बावड़ियाँ स्वच्छ जल व पद्म से युक्त होती थीं। इन बावड़ियों में मणियों की सीढ़ियाँ लगी होती थीं और किनारे की ऊँची जमीन स्फटिक मणि की होती थी। ६५ बावड़ियों से थोड़ी दूर हटकर समवसरण के चारों ओर स्वच्छ जल, जलचरों एवं जलजों से युक्त परिखा होती थी। इसका भीतरी भाग लतावन से घिरा होता था। वह लतावन, लताओं, झाड़ियों सभी ऋतुओं में पुष्पित होने वाले वृक्ष आदि से शोभायमान होता था।
लतावन के भीतर की ओर समवसरण को चारों ओर से घेरे हुए
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