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स्थापत्य : मन्दिर, समवसरण, राजप्रासाद एवं सामान्य भवन : १९१
राजप्रासाद, एवं मंदिर ) तथा समवसरण के उल्लेख मिलते हैं। किन्त प्रस्तुत अध्याय में मंदिर, समवसरण, राजप्रासाद एवं सामान्य भवन अथवा आवासगृह का ही विस्तार के साथ निरूपण किया गया है । जैन पुराणों में उल्लिखित भवनों के नाम निम्नवत् हैं-ह, गेह, प्रासाद, आगार, मन्दिर, आलय, सद्म, वेश्म, निलय, चैत्य, कूट, विमान, जिनेन्द्रालय, शाला, पुष्करावर्त, गृहकूटक, वैजयन्तभवन, गिरिकूटक तथा सर्वतोभद्र ।
जैन मन्दिर :
जैन मन्दिरों के सन्दर्भ में 'आयतन' शब्द का उल्लेख हुआ है। 'आयतन' का अस्तित्व महावीर के समय में भी था। विहार के समय विश्राम के लिये महावीर के यक्षायतनों में ठहरने के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। बाद में आयतन शब्द का प्रयोग जिनायतन के रूप में होने लगा और इसके बाद मन्दिर, चैत्य, आलय, वसति, वेश्म, विहार, भुवन, प्रासाद, गेह, गह आदि शब्दों ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया।१० पउमचरिय में राम व रावण द्वारा अनेक स्थलों पर जिन मंदिरों व प्रतिमाओं की स्थापना, पूजन एवं जीर्णोद्धार के उल्लेख हैं।११आदिपुराण में जैन मंदिर के लिये 'सिद्धायत' शब्द प्रयुक्त हुआ है । १२ अमरकोश में आयतन और चैत्य का एक ही अर्थ बताया गया है। 3 जैन आगम ग्रन्थों में चैत्य शब्द का प्रयोग देव मंदिर के लिये हुआ है ।१४ आदिपुराण में चैत्यवक्ष के समीप जिनमंदिर के होने का उल्लेख है। १५ पद्मपुराण में चैत्यालय को महापवित्र बताया गया । वस्तुतः जिनेन्द्रालय का बृहताकार ही चैत्यालय है ।१६ जिनेन्द्रालय के स्थान पर 'जिनवेश्म' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । १७
भारतीय वास्तुकला का विकास पहले स्तूप निर्माण में, फिर गुफा चैत्यों व विहार में और तत्पश्चात् मन्दिरों के निर्माण में पाया जाता है। जैन परम्परा में मन्दिरों के निर्माण में ही वास्तुकला ने अपना चरम उत्कर्ष प्राप्त किया। पद्मपुराण में प्रत्येक पर्वत, गाँव, पत्तन, महल, नगर, संगम तथा चौराहे पर जैन मंदिर के निर्माण का उल्लेख है ।१९
- किसी भी देश को कला एवं स्थापत्य की नियामक उस देश की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियाँ होती हैं। भारतीय कला लोगों की धार्मिक मान्यताओं व समाज की आर्थिक स्थिति का मूर्त रूप रही हैं। यह तथ्य जैन कला व स्थापत्य के विकास के सन्दर्भ में विशेष महत्त्वपूर्ण
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