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अन्य देवी-देवता : १७१
दिक्पाल समह में भी इन्द्र का रूपायन हुआ है जिनमें गजवाहन वाले चतुर्भुज इन्द्र सामान्यतः त्रिभंग में हैं और उनके करों में वज्र एवं अंकुश के अतिरिक्त अभय या वरदमुद्रा तथा फल (या कलश या पद्म) प्रदर्शित हैं ।
रुद्र :
११ रुद्रों की परिकल्पना जैन धर्म में परवर्तीकालीन है किन्तु चूर्णी ग्रंथों या दिगम्बर लेखक जटासिंह नन्दि ने इनका कोई उल्लेख नहीं किया है । आरम्भ में जैन मन्दिरों व जैनधर्म में इनका कोई अस्तित्व नहीं था । जैन धर्मावलम्बियों को शैव मतावलम्बियों के समक्ष, विशेषकर दक्षिण में उपस्थित होने के लिये तथा उन्हें विश्वस्त करने के लिये, जैन साहित्य में ११ रुद्रों की सूची प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया । इनका प्रारम्भिक स्वरूप शूलपाणि की पौराणिक कथा पर आधारित था । आगे चलकर ११ रुद्रों की कल्पना सत्यकी की कथा पर आधारित हुई | एकादश रुद्रों की कल्पना स्पष्टतः ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित है । ११ रुद्र विभिन्न तीर्थंकरों के समकालीन बताये गये हैं । प्रथम रुद्र भीमबालि ऋषभदेव, जितशत्रु अजितनाथ, विशालनयन (या विश्वाहर)सुविधिनाथ, शीतलनाथ, सुप्रतिष्ठ- श्रेयांसनाथ, अचल-वासुपूज्य, पुण्डरीक - विमलनाथ, अजितनधर - अनन्तनाथ, अजितनाभि-धर्मनाथ, पीठ - शान्तिनाथ एवं सत्यकीपुत्र - महावीर के समकालीन थे । ४९
श्वेताम्बर परम्परा में क्रमशः भीमावली, जितशत्रु, विश्वाहल, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितधर, अजितनाथ, पेढ़ाल और सत्यकीसुत नामक रुद्रों का उल्लेख है । ५० रुद्र को विभिन्न विद्याओं में पारंगत माना गया है । सत्यकीसुत का उल्लेख शिव अथवा महेश्वर के रूप में भी आया है । इस सन्दर्भ में कथा है-विद्या महारोहिणी सत्यकीसुत के मस्तक पर एक छिद्र बनाकर उसी के द्वारा उसके शरीर में प्रवेश कर गयी। आगे चलकर यही छिद्र तीसरे नेत्र के रूप में परिणत हो गया । ११ यह कथा पुनः एकादश रुद्रों की कल्पना के शिव से सम्बन्धित होने का भाव व्यक्त करती है ।
शिव :
शिव ब्राह्मण धर्म के प्रभावशाली देवता हैं जिन्हें जैन देवकुल में कई . रूपों एवं नामों सहित ग्रहण किया गया । इस सन्दर्भ में आदिपुराण में
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