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यक्ष-यक्षी एवं विद्यादेवी : १५७.
और द्विभुज तथा मुकुट आदि से सज्जित दिखाया गया है। कुबेर के करों में पात्र ( या फल) एवं धन का थैला प्रदर्शित हैं। अधिकांश उदाहरणों में कुबेर के आयुध खण्डित हैं। गुफा सं० ३२ के प्रथमतल के मण्डप की मति में शीर्ष भाग में लघु जिन आकृति एवं पाश्वों में गदा
और धन का थैला लिए दो सेवक आकृतियाँ भी रूपायित हैं। विद्यादेवियां :
विद्याओं के नामों एवं लाक्षणिक स्वरूपों की चर्चा प्रारम्भिक ग्रन्थों में मिलती है। किन्तु जैन शिल्प में इनका अंकन ८वीं-९वीं शती ई० से ही प्राप्त होता है । आगम ग्रन्थों में विद्याओं का आचरण जैन आचार्यों के लिये वर्जित था, परन्तु कालान्तर में विद्यादेवियाँ जैन ग्रन्थ एवं शिल्प की सर्वाधिक लोकप्रिय विषयवस्तु बन गयीं । जैन परम्परा में इन विद्याओं की संख्या ४८ हजार तक बतायी गयी है।५८ ___ बौद्ध एवं जैन साहित्य बुद्ध एवं महावीर के समय में जादू, चमत्कार, मन्त्रों एवं विद्याओं का उल्लेख करते हैं ।५९ औपपातिकसूत्र के अनुसार महावीर के अनुयायी थेरों (स्थविरों) को विज्जा (विद्या) और मंत ( मन्त्र ) का ज्ञान था।६० इसी प्रकार नायाधम्मकहाओ में भी महावोर के प्रमख शिष्य सुधर्मा को मन्त्र एवं विद्या का ज्ञाता बताया गया है।६१ स्थानांगसूत्र६२ में जांगोलि एवं मातंग तथा सूत्रकृतांगसूत्र 3 में वैताली, अर्धवैताली, अवस्वपनी, तालुध्धादणी, श्वापाकी, सोवारी, कलिंगी, गौरी, गान्धारी, अवेदनी, उत्पतनी एवं स्तंभिनी आदि विद्याओं के उल्लेख हैं । इनमें से गौरी एवं गान्धारी को कालान्तर में १६ महाविद्याओं की सूची में सम्मिलित किया गया।
पउमरिय विद्यादेवियों के प्रारम्भिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न स्थलों पर प्रज्ञप्ति, कौमारी, लधिमा, वज्रोदरी, वरुणी, विजया, जया, वाराही, कौबेरी, योगेश्वरी, चण्डाली, शंकरी, बहुरूपा तथा सर्वकामा विद्याओं का नामोल्लेख हुआ है।३४ एक स्थल पर महालोचन देव द्वारा पद्म ( राम ) को सिंहवाहिनी एवं लक्ष्मण को गरुडाविद्या दिये जाने का उल्लेख आया है।५ जिनसे कालान्तर में गरुडवाहिनी, अप्रतिचक्रा और सिंहवाहिनी, महामानसी महाविद्याओं की धारणा का विकास हुआ। एक स्थल पर ऋषभदेव के पौत्र नमि और विनमि को धरणेन्द्र द्वारा बल एवं समृद्धि की अनेक विद्याएँ प्रदान किये जाने का भी उल्लेख है। इस ग्रन्थ में राम, लक्ष्मण,.
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