________________
प्रस्तावना : २७.५
फूला । १०० व्यापारियों द्वारा जैनधर्म व कला को संरक्षण प्रदान करते की पुष्टि खजुराहो, जालोर, ओसियाँ, देलवाड़ा जैसे स्थलों से प्राप्तः लेखों से भी होती है । १०१
राजकीय प्रतिष्ठा के साथ-साथ इस समय जैन वैश्य बड़ा ही सुपठित व प्रबुद्ध था । जैनाचार्यों के समान वह भी साहित्य प्रेमी था तथा साहित्य सेवा में रत था, उदाहरणार्थ - अपभ्रंश पद्मचरित के रचयिता स्वयंभू, तिलकमंजरी के प्रणेता धनपाल, कन्नड़ चामुण्डराय-पुराण के लेखक चामुण्डराय, नरनारायणानन्द महाकाव्य के लेखक वस्तुपाल, धर्मशर्माभ्युदय के रचनाकार हरिश्चन्द्र, पं० आशाधर अर्हदास तथा कविमण्डन आदि जैन गृहस्थ ही थे । १०२
जैन पुराणकालीन समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था की वैदिक मान्यतायें प्रचलित थीं और सामाजिक जीवन के रग-रग में थे इस प्रकार प्रवाहित थीं कि इसके प्रभाव से जैनाचार्य भी अपने को वंचित नहीं रख सके । इसका प्रभाव दक्षिण के जैन आचार्यों पर विशेष रूप से पड़ा जिसका उदाहरण हम उनके द्वारा विरचित साहित्य में देख सकते हैं । गोकुलचन्द्रजैन के अनुसार जिनसेन ने उन सभी वैदिक नियमोपनियमों का जैनीकरणकर उन पर जैनधर्म की छाप लगा दी थी, जिन्हें वैदिक प्रभावों से प्रभावित होने के उपरान्त भी जैन समाज मानने लगा था । १०३ जिनसेन. कृत आदिपुराण के अनुसार भोगभूमि के समाप्त होने तथा कल्पवृक्ष के शक्तिहीन होने पर कर्मभूमि का आरम्भ हुआ । इसी समय वृषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य तथा शिल्प इन ६ कर्मों द्वारा प्रजा को आजीविका का उपदेश दिया, जो स्पष्टतः वैदिक परम्परा से प्रभावित है । १०४ आदिपुराण में यह भी उल्लेख है कि प्रजा का ठीक प्रकार से पालन करने के उद्देश्य से तथा उनकी आजीविका इत्यादि की व्यवस्था करने के उद्देश्य से वृषभदेव ने अपनी भुजाओं में शस्त्र धारण करके क्षत्रियों की सृष्टि की थी तथा उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था ।' तदनन्तर अपने ऊरुओं से वैश्यों की रचना की तथा पैरों से शूद्रों की रचना की । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन उत्तम वर्णों की सेवा सुश्रूषा करना ही शूद्रों की आजीविका थी । १०५ यह बात ब्राह्मण परम्परा में सामान्य रूप से प्रचलित इस विश्वास के साथ तादात्म्य स्थापित करती है कि ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मण वर्ण की, भुजाओं से क्षत्रिय, ऊरुओं से वैश्य तथा चरणों से शूद्र वर्ण की सृष्टि की थी । ध्यातव्य है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org