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तीर्थकर (या जिन) : १०३ माह पूर्व से प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की तथा इनकी माता ने १६ शुभ स्वप्न व मुख में प्रवेश करता हाथी देखा । महारानी उन स्वप्नों का फल महाराज से जानकर प्रसन्न हुईं। उसी समय देवों द्वारा गर्भकल्याणक उत्सव किया गया ।२४०
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का जीव पहले कुण्डपुर ग्राम के ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । अवधिज्ञानी इन्द्र को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने हरिणैगमेषी देव को बुलाकर महावीर के भ्रूण को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में परिवर्तित करने का आदेश दिया क्योंकि चक्रवर्ती बलदेव आदि का जन्म सदैव क्षत्रियकूल में ही होता आया है ।२४१ फलस्वरूप हरिणैगमेषी ने इन्द्र के आदेश को क्रियान्वित किया।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन अर्यमा नामक शुभ योग में माता ने जिन बालक को जन्म दिया। सौधमेन्द्र ने मायामय बालक को माता के पास रखकर जिन बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर सिंहासन पर विराजमान किया और क्षीरसागर के जल से भरे कलशों द्वारा उसका अभिषेक किया तथा बालक का 'वीर' और 'वर्धमान' नाम रखा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार बालक के जन्म के बाद से धन, धान्य, कोष, भण्डार, बल तथा वाहन आदि समस्त राजकीय साधनों में अभूतपूर्व वृद्धि होने के कारण ही बालक का नाम 'वर्धमान' रखा गया ।२४२ दिगम्बर परम्परा में इनके 'महावीर' नाम के सम्बन्ध में एक कथा वर्णित है । एक बार संगम नामक देव इनकी वीरता की परीक्षा लेने के उद्देश्य से सर्प का रूप धारण कर इनके पास आये। उस समय बालक वर्धमान अपने साथियों के साथ एक वृक्ष पर चढ़कर क्रीड़ा कर रहे थे। सर्प को देखकर उनके सभी साथी भाग गये किन्तु कुमार महावीर ने उस सर्प पर चढ़ कर निर्भय हो क्रीड़ा की। इस शौर्य पर संगम देव ने बालक की स्तुति की और उसका नाम 'महावीर' रखा ।२४3
कुमारकाल के तीस वर्ष व्यतीत हो जाने पर दूसरे ही दिन इन्हें आत्मज्ञान हो गया और पूर्वभव का स्मरण हो आया। उसी समय लौकान्तिक देवों ने इनकी स्तुति की और देवों ने निष्क्रमण कल्याणक की क्रिया की। तदनन्तर महावीर षण्ड नामक वन में गये और रत्नमयी
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