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६६ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
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समूह द्वारा पूजित बताया गया है । इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर ऋषभनाथ को स्वयंभू, चतुर्मुख, पितामह, भानु, शिव, शंकर, त्रिलोचन, महादेव, विष्णु, हिरण्यगर्भ, महेश्वर, ईश्वर, रुद्र और स्वयं सम्बुद्ध आदि नामों से देवता एवं मनुष्यों द्वारा वंदित बताया गया है । ६२ इन्हें प्रथम नृप, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर तथा प्रथम धर्म - चक्रवर्ती कहा गया है । ६३ शिवपुराण में शिव के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख भी हुआ है । ६४ ऋषभदेव के साथ वृषभ तथा शिव के साथ नन्दी समान रूप से जुड़ा है । इसी प्रकार ऋषभदेव का निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत माना गया है और शिव भी कैलाशवासी माने जाते हैं । " महाभारत के अनुशासन पर्व में जहाँ एक ओर शिव का ऋषभ नाम आया है, वहीं दूसरी ओर आदिपुराण में वृषभदेव को शंभु, शिव, मृत्युंजय, महेश्वर, शंकर, त्रिपुरारि तथा त्रिलोचन आदि नामों से संबोधित किया गया है। शिव के मस्तक पर जटामुकुट और ऋषभनाथ के साथ कंधों पर लटकती जटाओं और यक्ष के रूप में गाय के मुखवाले गोमुख यक्ष की परिकल्पना भी दोनों की एकात्मकता का संकेत देते हैं । गोमुख यक्ष का वाहन वृषभ है और उसके एक हाथ में परशु दिखाया जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि महायोगी शिव के स्वरूप के आधार पर ही जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की कल्पना की गयी । भागवत्पुराण में वर्णित ऋषभ का सन्दर्भ ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि के स्वरूप से साम्यता रखता है । ६८ ऋग्वेद की एक ऋचा में केशी और वृषभ का एक साथ उल्लेख आया है । ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभदेव के साथ एकीकरण हो जाने से जैन धर्म की प्राचीनता पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । ७० इस आधार पर जैन धर्म की संभावित प्राचीनता ई० पू० १५०० तक मानी जा सकती है । ७१ श्रीमद्भागवत् में भी ऋषभदेव का उल्लेख आया है जिसके अनुसार वासुदेव ऋषभरूप में नाभि और मरुदेवी के यहाँ अवतरित हुए। जैनेतर पुराणों - मार्कण्डेय पुराण, ७३ कूर्मपुराण, ७४ अग्निपुराण, वायुमहापुराण", ब्रह्माण्डपुराण, वाराहपुराण, लिंगपुराण, विष्णुपुराण तथा स्कन्दपुराण" में ऋषभदेव के अनेक उल्लेख हैं जो शिव से सन्दर्भित हैं ।
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ऋषभ का जन्म इन्द्र द्वारा रचित अयोध्या नगरी के राजा व चौदह कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराज के यहाँ हुआ था | 2
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