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७० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन देदीप्यमान बना रहा तथा केश संस्कार रहित होने के कारण जटाओं के समान हो गये थे।१११ ___अनेक वर्षों तक विभिन्न देशों में विहार करने के बाद ऋषभ पुरिमताल नामक नगर में पहुंचे और वहाँ शकट नामक उद्यान में एक वट वृक्ष के नीचे चित्त की एकाग्रता तथा विभिन्न मोहनीय कर्मों पर विजय प्राप्त कर फाल्गन कृष्ण एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में उन्होंने केवलज्ञान की प्राप्ति की।११२ उसी समय इन्द्र ने उनकी जय-जयकार की तथा आकाश से कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा की ।११३ केवलज्ञान प्राप्त कर लेने से ऋषभ अरिहंत हो गये। तत्पश्चात् ऋषभ विभिन्न देवों द्वारा निर्मित समवसरण के तीसरे पीठ पर स्थित सिंहासन पर विराजमान हुए और कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् पहला उपदेश दिया । ११४ इस समवसरण में इन्द्र, इन्द्राणी, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी व कल्पवासी देव तथा सुर, असुर, मनुष्य, पशु, नागेन्द्र, यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व व चारण भी उपस्थित थे । ऋषभ के पुत्र भरत भी समवसरण में पहुँचे । ११५ इसी समवसरण में ऋषभ ने विभिन्न पुरुषार्थों, स्वर्ग व मोक्ष रूप मार्ग के फल, बन्धन व इसके कारण, सांसारिक मोह से मुक्ति, जीव, तीनों लोकों के आकार, स्वर्ग, देवों के आय, मोक्ष स्थान, जीवों की उत्पत्ति, विनाश, भोग सामग्री, मनुष्यों के करने तथा न करने योग्य कार्य तथा भूत, भविष्यत् व वर्तमान काल सम्बन्धी तत्वों के स्वरूप का उपदेश दिया।११६ समवसरण में देव, मनुष्य, ऋषि एवं जीव-जन्तु पारस्परिक सद्भाव के साथ प्रत्येक तीर्थंकर के प्रथम धर्मोपदेश का श्रवण करने के लिये उपस्थित हुए थे। साहित्यिक विवरण के अनुरूप शिल्प में समवसरण का निर्माण हुआ जिनके उदाहरण श्वेताम्बर स्थलों (कुंभारिया (चित्र ३७), देलवाड़ा, ओसियाँ) से अधिक संख्या में मिले हैं। समवसरण में सबसे ऊपरी भाग में तीर्थंकर तथा नीचे के तीन वृत्ताकार प्राचीरों पर देव, ऋषि आकृतियों के अतिरिक्त शत्रु भाव वाले विभिन्न पशु-पक्षियों को आमने-सामने दिखाया गया है जैसे—गज, सिंह, मयूर, सर्प इत्यादि । ___ समवसरण में विभिन्न तत्त्वों का निरूपण करने के बाद ऋषभ गणधरों के साथ अनेक वर्षों तक काशी, अवन्ति, कुरु, कौशल, सुह्या, पुण्ड, चेदि, मालव, दशार्ण व विदर्भ आदि देशों में विहार करते रहे और आय की समाप्ति के चौदह दिन पूर्व पौष मास की पूर्णमासी के दिन कैलाशपर्वत पर विराजमान हुए।११७ यहीं पर माघकृष्ण चतुर्दशी के दिन अजित नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।११८
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